गुरुवार, 28 जून 2012

रातों को नींद नहीं आती है...


रातों को नींद नहीं आती है ,
सहमा-सहमा सा बीतता है हरेक पल,
जलती हुई सूजी बोझिल आँखें,
पर नींद गुमनाम सी गुमशुदा,
कोई काम पूर्ण हो ऐसा नहीं है,
इधर-उधर की सोच में उलझता हूँ,
अकेलापन धीरे-धीरे मार रहा मुझे,
नियमित दिनचर्या और अनुशासन भंग कर,
सूखे गले और मुरझाते तैलीय चेहरे ,
हर बार तर करता हूँ,
बाहर की गैलरी में थोड़ी देर टहलता हूँ.
पर कमबख्त नींद नहीं आती है.

एक खड्का-सा लगता है,
चौंकता हूँ अपनी जगह पर बैठे-बैठे,
सहसा एक नजर खिड़की की तरफ,
रात एक टक निहारे जा रही है बाहर से,
कोई खुशबू सी आती है रह- रहकर,
दरवाजे पर रतजगी रातरानी से,
मानों किसी प्रियतम के इंतजार में बैठी हो,
नहा-धो खुले केशों संग गमकती हुई,
धत्! ऐसा नहीं कहते रात में,
अपशकुन होता है, बुरा साया पड़ता है,
कौन समझाए भला कि इससे बुरा क्या ?
जब रातों को नींद नहीं आती है.

शुक्रवार, 22 जून 2012

पैगाम



मुद्दतों रही साथ मिरे पर मिली नहीं कभी,
दिल्लगी बड़ी जालिम, किताबों में दबी रही.

हर्फ़-हर्फ़ सजाया था जिसे कसीदाकारी से,
सफ़ेद सफ़हे की इबारत मटमैली सी मिली.

वो दर्द वो जूनून, मयस्सर नहीं आजकल,
अपनी बयानबाजियां, बस तंज ही लगीं .

पैगाम वही ताजा जो महफूज रहें जेहन में,
दिल तलक न पहुंचे दर्द तो कब्र भली सही. 

इंसान हुआ नादान तो परेशां फिरे हर वक्त,
मौसमों के आने-जाने में कोई दर्द कम नहीं.

-नवनीत नीरव-

गुरुवार, 14 जून 2012

गाँव में हर तरफ ही आग लगी है


जब से यहाँ विकास की बयार बही है,
गाँवों में हर तरफ ही आग लगी है.

दिन भर चलते हैं भारी मशीन खेतों में,
शाम ढले पौधे-चारे की होली-मशान जली है.

कोई नहीं यहाँ जो काटे,घर ले जाए इन्हें,
मवेशियों के पेट पर सीधे लात पड़ी है.

आहर- पाइन भर दिए बसने के नाम पर,
मनरेगा के काम की अभी बंदरबांट भई है.

घर बड़े हुए सबके आँगन दिल छोटे कर,
गलियों -नालियों में अभी तक जान फंसी है.

मिटटी की सारी कोठियां कब की फोड़ दी गयीं,
नए कपड़े-गहने की वहाँ आलमारी सजी है.

डिस टीवी, मोबाईल ही अब जिंदगी हुई,
इसी तरक्की से गाँव की पहचान हुई है.

अब आग बुझेगी कैसे ये हम-आप सोचते हैं,
कितने हैं जिन्हें यकीं नहीं कि आग भी लगी है.
 
-नवनीत नीरव-

रविवार, 10 जून 2012

पुरातन और हम

यह सब "चलन" है यहाँ का,
तो क्या ऐसा ही चलता रहेगा,
सदियों से होता आया है जो ,
पर क्या थोड़ा भी न बदलेगा,
कुछ अच्छी , कुछ बेतुकी बातें,
इन्हें ढोने का दौर कब तक चलेगा.


इतिहास गवाह है,
जो समय के साथ नहीं बदलता,
थोड़ा लचीला नहीं होता,
या तो समूल नष्ट हो जाता है,
या अकेला पड़ जाता है,
भले ही उसके बाद
आने वाली नस्लें ढूंढ लें उसे ,
किसी नालंदा के खंडहर में,
हडप्पा के अवशेषों में,
या फिर
अजंता-एलोरा की गुफाओं में. 

बहता जल निर्मल है,
यह शुद्धिकरण की प्रक्रिया है,
अनुभवों  के किनारों से गुजर कर,
नव -पुरातन को समाहित करता है,
नया दौर भी उसी सीढ़ी  से,
दौड़ता- गुजरता, चलता है,
संतुलित पग रखता है,
मनुष्य में असीम संभवनाएं हैं,
क्यों न सब खुद को पहचानें,
पुरातन से प्रेरणा ले कर,
कुछ अद्वितीय बना जाएँ...


- नवनीत नीरव-

शुक्रवार, 8 जून 2012

दूसरा महाभारत

अनवरत जुल्म से मुक्ति पाकर,
जब उसे स्वतंत्र जननी का दर्जा मिला,
अनगिनत धड़कते दिलों ने जयकार किया,
“ भारत माता की जय”
भविष्य के सपने संजोये जाने लगे थे,
अपनों संग मिल बैठ कर,
देश को खड़ा जो होना था,
तभी हमें पितृ हानि हुई,
सबने राष्ट्रपिता खोया,
आजाद मुल्क में खबर थी,
पर कोई भी न बचा सका उनको,
तो भला आम आदमी की क्या बिसात,
माता पर पुनः विपदा आन पड़ी.

सबने समझाया था,
एक ही परिवार के सदस्य तो हैं न,
मिलकर आगे बढ़ेंगे,
हम चाचा-चाचा कहते रहे,
वो हमें नए मुल्क के सपने दिखाते रहे,
विश्वास बहुत किया था उनपर,
स्नेह उन्होंने भी बरसाया रह –रहकर,
बाद में स्व परिवार के मोह में,
वे ऐसे फंसे..वे ऐसे फंसे,
घर को खंडित होने से न बचा सके,
(“सहोदर” का मतलब तभी जाना था हमने)
न ही पडोसी की कुदृष्टि से,
बाद में अपनों की भी नजरें मैली हो गयी.

छोटे बड़े मौकों पर हम भी शरीक होते रहे,
सबको अपना मानकर,
अपनी माता की प्रतिष्ठा की खातिर,
और आप दो भाव करते चले,
विधायिका, न्यायपालिका, और कार्यपालिका
क्रमशः भीष्म, विदुर और धृतराष्ट बने रहे,
हाशिए पर के लोग त्रस्त हैं,
इनके हौसले पस्त हैं,
आम लोग, आम ही रहें,
जब तक वो हक की बात न करते हों,
पांडु पुत्रों की तरह सहते रहें,
हर अपमान और अन्याय को,
पर कब तक ?
यह प्रश्न निरुत्तर है,
जिस दिन ये आम लोग कमर कस लेंगे,
और आप के सामने से,
मांगेंगे हिसाब अपना हक,
उसी दिन से शुरू हो जायेगा,
भारतवर्ष में दूसरा महाभारत. 

-नवनीत नीरव- 

गुरुवार, 7 जून 2012

ये क्या बना डाला हमने ..


आजादी के पहले और कुछ बाद भी,
आभाव ग्रस्त लोग,
बसते थे इन गाँवों में,
जिनके बड़े दिलवाले किस्से,
आज भी मन को गुदगुदाते हैं,
गाँव के चित्र संग,
कहानियों और कविताओं में.

धनहर खेतों की माटी,
गुजारे लायक अन्न तो,
ऊपजा ही लेती थी,
जिससे अपने पेट भरने के संग,
किया जा सके आतिथ्य सत्कार,
जो बीतते समय के साथ,
ग्रामीण मानवता का मंत्र बन गया.

रात के अँधेरे में जहाँ,
कोसों भ्रमण कर आते लोग,
दिन में कोई भी पूछ लेता,
आपसे नाम, पता, गाँव और उद्देश्य,
इस क्षेत्र में आने का,  
हरेक को फिक्र थी,
अपने समाज की, अपने भविष्य की.

आज सुविधाएँ ज्यादा हैं,
पर आभावों के नए नाम हैं,
गाँव जाने पर कोई भी नहीं पूछता,
हाल समाचार, आने का कारण,
पूछते हैं सब इतना ही बस,
बी० पी० एल० या फिर इंदिरा आवास दोगे,
या क्या दोगे हमें जो तुमको हम समय दें,

पूरा गाँव घूम जाएँ,
कोई पानी तक को नहीं पूछता,
शायद अब अतिथि देवो भवः नहीं,
इसमें गलती इनकी भी नहीं,
पाठशालाएं जो ये सिखाती थीं,
अब वहां मुफ्त वाले ढाबे चलते हैं,
या खैरात बंटती है सुविधाओं की.

खूब मेहनत कर लें,
आधुनिक मशीन और तकनीक से,
अन्न नहीं उपजता,
कि परिवार पेट भर सके,
पलायन गाँव को सोख रहा,
तीज,त्योहार, रिश्तों को फीके कर चला,
सही नीयत में ही तो बरकत होती है.
.   
ये क्या बना डाला हमने,
ग्राम स्वराज के नाम पर,
जातिवाद की गहरी खाईयां,
अविश्वास के विषैले कांटेदार जंगल,
स्वार्थ निहित कार्य में लिप्त,
हठी, आलसी और मतलबी लोग,
जो हर पल देश को धोका देने को तैयार हैं.