रविवार, 22 अगस्त 2010

सयाना यार

घर से बाहर निकलो तो , हर शख्स अनजाना लगता है,
छाँव कहीं भी मिल जाती है, पर दरख़्त बेगाना लगता है.


शाम ढले घर की सारी खिड़कियाँ खुल जाती हैं,
पर किस्मत से भी कहाँ यहाँ, कोई यार पुराना मिलता है.

उदासियों की मोमबतियां जो रातों को दिल में जलती हैं,
जलते –बुझते प्रकाश में भी, यह शहर वीराना लगता है.

कहते हो तुम भूल जाओगे, कल तक हमारे शहर को “नीरव”
कैसे भूलूं उन गलियों को, जिनसे कुछ याराना लगता है.

कल तक जिन लम्हों की ऊँगली, पकड़ के घूमा करता था,
उन यादों का जिक्र करूँ तो, कहें सब यार सयाना लगता है.

-नवनीत नीरव -