अनवरत
जुल्म से मुक्ति पाकर,
जब
उसे स्वतंत्र जननी का दर्जा मिला,
अनगिनत
धड़कते दिलों ने जयकार किया,
“ भारत
माता की जय”
भविष्य
के सपने संजोये जाने लगे थे,
अपनों
संग मिल बैठ कर,
देश
को खड़ा जो होना था,
तभी
हमें पितृ हानि हुई,
सबने
राष्ट्रपिता खोया,
आजाद
मुल्क में खबर थी,
पर
कोई भी न बचा सका उनको,
तो
भला आम आदमी की क्या बिसात,
माता
पर पुनः विपदा आन पड़ी.
सबने
समझाया था,
एक
ही परिवार के सदस्य तो हैं न,
मिलकर
आगे बढ़ेंगे,
हम
चाचा-चाचा कहते रहे,
वो
हमें नए मुल्क के सपने दिखाते रहे,
विश्वास
बहुत किया था उनपर,
स्नेह
उन्होंने भी बरसाया रह –रहकर,
बाद
में स्व परिवार के मोह में,
वे
ऐसे फंसे..वे ऐसे फंसे,
घर
को खंडित होने से न बचा सके,
(“सहोदर”
का मतलब तभी जाना था हमने)
न
ही पडोसी की कुदृष्टि से,
बाद
में अपनों की भी नजरें मैली हो गयी.
छोटे
बड़े मौकों पर हम भी शरीक होते रहे,
सबको
अपना मानकर,
अपनी
माता की प्रतिष्ठा की खातिर,
और
आप दो भाव करते चले,
विधायिका,
न्यायपालिका, और कार्यपालिका
क्रमशः
भीष्म, विदुर और धृतराष्ट बने रहे,
हाशिए
पर के लोग त्रस्त हैं,
इनके
हौसले पस्त हैं,
आम
लोग, आम ही रहें,
जब
तक वो हक की बात न करते हों,
पांडु
पुत्रों की तरह सहते रहें,
हर
अपमान और अन्याय को,
पर
कब तक ?
यह
प्रश्न निरुत्तर है,
जिस
दिन ये आम लोग कमर कस लेंगे,
और
आप के सामने से,
मांगेंगे
हिसाब अपना हक,
उसी
दिन से शुरू हो जायेगा,
भारतवर्ष
में दूसरा महाभारत.
-नवनीत नीरव-
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