ये खुली जगह जहाँ मैं रहता हूँ,
यूँ कहें कुछ अजीब सी लगती है।
गौरैयों के झुण्ड चहचहाते हुए,
अक्सर जगा जाते हैं हर सुबह,
समीप के पहाड़ी से छन कर आती,
झीनी सूरज की किरणें तैयार करती हैं,
आलस छोड़ काम पर जाने के लिए,
पास के मंदिर से आती घंटियों की रुनझुन,
मन में जगाती हैं भाव वंदन का,
जो शायद भूल चला था मैं बड़े शहरों के प्रभाव में,
पास के ढाबे में ज्यादा कुछ तो नहीं मिलता,
पर हाँ घर के खाने जैसी खुशबू आती है,
कभी- कभी उसकी रोटियों से।
इस गर्मी की भरी दोपहरी में
सुनसान सड़क पर मुझे ,
छाया देने की खातिर ,
अक्सर बांहें फैला देते हैं अनगिनत पेड़,
ममता की आंचल फैलाती हैं उनकी डालियाँ।
रात को सोते वक्त पास में खड़े आम के कुछ पेड़,
इस तरह पहरेदारी करते हैं,
जैसे मेरे अभिभावक हों,
उनकी मंजरियाँ और पत्तियां,
रात को धीमे -धीमे कोई गीत गुनगुनाती हैं,
यहाँ गुजरने वाली पुरवाई के संग
मुझे अपने प्यार की थपकी देती हुई।
हाँ, ये जगह जहाँ मैं रहता हूँ,
थोड़ी अजीब है,
पर अब मेरे दिल के काफी करीब है।
- नवनीत नीरव -
1 टिप्पणी:
आज कल ऐसी जगह कहाँ नसीब होती है ..आप किस्मत वाले हैं ..सुन्दर प्रस्तुति
एक टिप्पणी भेजें