बादल की ऊँगली को थामे,
जोगन बनकर घूमे-घामे ,
कभी धीमी सी, कभी उग्र,
चले सीना ताने करे फक्र,
कभी पुरवैया कभी पछुवा,
अल्हड़ चंचल-सी बरसाती हवा.
उमड़-घुमड़ कर बादल लाती,
गरज-गरज कर ढोल बजाती,
कपड़े छत से जल्दी समेटो,
वर्ना उड़ा उनको ले जाती,
खिड़की दरवाजों से बेधड़क,
बिन पूछे आ जाती बेहया.
अल्हड़ चंचल-सी बरसाती हवा.
उमस मौसम में राहत लाती,
कभी किसी के छत-छप्पर उड़ाती,
शर्मीले गुलमोहर को छेड़ कर,
भरी दुपहरी में बेपानी कर जाती,
ठंढी इसकी तासीर कहें सब,
छू जाए तो न काम करे दवा.
अल्हड़ चंचल-सी बरसाती हवा.
-नवनीत नीरव-
3 टिप्पणियां:
बहुत सुंदर रचना
बहुत सुंदर ..
bahut sundar kavita
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