शनिवार, 28 जुलाई 2012

बारिश और महंगाई


आसमान निहारते कई दुपहरें बीतीं,
स्याह बादलों के टुकड़े नजर नहीं आए,
धान की पौध खड़ी-खड़ी कुम्हलायीं,
किसानों के मुँह-होठ सख्त हुए जायें.

शुरू हुआ दौर ‘राहत पैकेज’ की मांग का,
आपदा-विषमता के कई कारण गिनाये जाएँ,
प्रतिनिधि क्षेत्र की बदहाली का रोना-रोते,
ऐसा नहीं किसी के चंद आँसू निकल आये.

केन्द्र के माथे पर शिकन पड़ते-पड़ते,
कई महीनों संग दीवाली गुजर जाए,
बारिश गुजर गई टूटे छप्पर में भींगते ,
अचरज नहीं जाड़ा बिन कम्बल गुजर जाय.

आखिर क्या हुआ जो मुआवजा मिला,
कुछ सरकारी कागजों का बोझ बढ़ गया,
चंद किसान पलायन कर मजदूर बन गए,
महंगाई बड़े प्यार से बढ़ती ही चली जाय .

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