बाबा! आपको गए चार सावन बीते,
यह सावन भी जाने वाला है,
हँसी खुशी ही बीते सब दिन,
पर मौसम तुनकमिजाजी निकला,
सुल्तानगंज से देवघर तक,
जलते रहे कांवरियों के पाँव,
पानी न बरसा,
गिरहत के आँख बादल देखते आघाये,
एक टुकड़ा बादल-का न गुजरा ,
धान की फसल बर्बाद हो गई,
इसी का तो आसरा रहता है न उन्हें,
कौन जाने रबी का मिजाज कैसा हो ?
-------------------------------------
नातिन का तीज आया है,
ससुर-देवर आए हैं,
कल ही मालूम हुआ मुझे भी,
पहिलौठे तीज भादो में नहीं आती,
रात में आम और पुए संग,
भई खूब मेहमानी,
मीठी गालियों के गीत भी गाए ,
गाँव की जमा चंद औरतों ने,
काफ़ी खुश थे सब,
घर भी मुस्कुराया था ,
अब तक जो खोया-सा लगता था.
----------------------------------------
आज सुबह जल्दी ही जग गया,
रात को अच्छी नींद नहीं आयी,
मच्छरों से लड़ता-भिड़ता जो रहा था,
हवा भी दम साधे हुए थी,
पूरी रात एक पत्ता भी न डोला,
सारी रात छत पर टहलते बीती ,
हवा भटक गई है,
या डर से किसी कोने में दुबक गई होगी,
गाँव का ट्रांसफर्मर जल गया है,
शायद हफ्ते भर लगेंगे,
उफ़! इतनी गर्मी तो कभी नहीं थी,
उमस वाली, वह भी सावन मास में.
सारा गाँव बेहाल है आजकल
------------------------------------------
कल चाचा बताते थे,
नीलगायें भी धान चरने लगी हैं आजकल,
साल में दो बच्चे देती हैं,
किसान का जीना मुहाल,
यहाँ मकई-तरकारी भी तो नहीं कर पाते,
जो खरीफ का नुकसान पूरा कर पायें,
बगीचे- वन सब काट दिये जब,
तो आप ही समझाओ ,
नीलगाय कहाँ जाएँ ?
नीलगाय क्या खाएँ ?
उनके चरागाह पर बन रही हैं ,
अंधाधुंध बस्तियां,
तो भला क्यों न धान के पौधे चबाएँ,
चाचा भी जानते हैं यह बात,
पर दोष तो किसी को देना होगा न !
-----------------------------------------
घर दुआर सब सूना पड़ा है,
गाँव भी शांत-शांत लगता है,
आपके संगी-साथी जो जमा होते थे ,
बी०बी०सी० सुनने के बहाने दुआर पर,
एक-एक करके चले गए,
अब कोई नहीं आता शाम ढले,
बस वही लालटेन लटकती रहती है,
देर रात तक ख़ामोशी में उंघती हुई,
गाँव के पश्चिम में आम का बगीचा,
जहाँ गर्मी की छुट्टियाँ गुजरती रहीं थी,
आमों की रखवाली में,
जामुन-कोइन बीनने में,
अब सपाट मैदान है,
बेतहाशा अंधड़ एक-एक करके,
उन पेड़ों को ले उड़ा,
शायद जीने की चाह भी नहीं थी उनमें,
कहते हुए दुःख-सा होता है,
बाबा! आप गए,
और अपने साथ ही सबकुछ ले गए,
कोई सोचता भी नहीं अब बेचैनी से,
इस गाँव, इस घर के लिए,
कोई आता भी नहीं,
कभी -कभार केवल औपचारिकताएँ,
वह भी घर के बंटवारे की,
करना चाहते हैं सभी,
यहाँ की ख़ामोशी का बंटवारा भी.
-नवनीत नीरव-
यह सावन भी जाने वाला है,
हँसी खुशी ही बीते सब दिन,
पर मौसम तुनकमिजाजी निकला,
सुल्तानगंज से देवघर तक,
जलते रहे कांवरियों के पाँव,
पानी न बरसा,
गिरहत के आँख बादल देखते आघाये,
एक टुकड़ा बादल-का न गुजरा ,
धान की फसल बर्बाद हो गई,
इसी का तो आसरा रहता है न उन्हें,
कौन जाने रबी का मिजाज कैसा हो ?
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नातिन का तीज आया है,
ससुर-देवर आए हैं,
कल ही मालूम हुआ मुझे भी,
पहिलौठे तीज भादो में नहीं आती,
रात में आम और पुए संग,
भई खूब मेहमानी,
मीठी गालियों के गीत भी गाए ,
गाँव की जमा चंद औरतों ने,
काफ़ी खुश थे सब,
घर भी मुस्कुराया था ,
अब तक जो खोया-सा लगता था.
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आज सुबह जल्दी ही जग गया,
रात को अच्छी नींद नहीं आयी,
मच्छरों से लड़ता-भिड़ता जो रहा था,
हवा भी दम साधे हुए थी,
पूरी रात एक पत्ता भी न डोला,
सारी रात छत पर टहलते बीती ,
हवा भटक गई है,
या डर से किसी कोने में दुबक गई होगी,
गाँव का ट्रांसफर्मर जल गया है,
शायद हफ्ते भर लगेंगे,
उफ़! इतनी गर्मी तो कभी नहीं थी,
उमस वाली, वह भी सावन मास में.
सारा गाँव बेहाल है आजकल
------------------------------------------
कल चाचा बताते थे,
नीलगायें भी धान चरने लगी हैं आजकल,
साल में दो बच्चे देती हैं,
किसान का जीना मुहाल,
यहाँ मकई-तरकारी भी तो नहीं कर पाते,
जो खरीफ का नुकसान पूरा कर पायें,
बगीचे- वन सब काट दिये जब,
तो आप ही समझाओ ,
नीलगाय कहाँ जाएँ ?
नीलगाय क्या खाएँ ?
उनके चरागाह पर बन रही हैं ,
अंधाधुंध बस्तियां,
तो भला क्यों न धान के पौधे चबाएँ,
चाचा भी जानते हैं यह बात,
पर दोष तो किसी को देना होगा न !
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घर दुआर सब सूना पड़ा है,
गाँव भी शांत-शांत लगता है,
आपके संगी-साथी जो जमा होते थे ,
बी०बी०सी० सुनने के बहाने दुआर पर,
एक-एक करके चले गए,
अब कोई नहीं आता शाम ढले,
बस वही लालटेन लटकती रहती है,
देर रात तक ख़ामोशी में उंघती हुई,
गाँव के पश्चिम में आम का बगीचा,
जहाँ गर्मी की छुट्टियाँ गुजरती रहीं थी,
आमों की रखवाली में,
जामुन-कोइन बीनने में,
अब सपाट मैदान है,
बेतहाशा अंधड़ एक-एक करके,
उन पेड़ों को ले उड़ा,
शायद जीने की चाह भी नहीं थी उनमें,
कहते हुए दुःख-सा होता है,
बाबा! आप गए,
और अपने साथ ही सबकुछ ले गए,
कोई सोचता भी नहीं अब बेचैनी से,
इस गाँव, इस घर के लिए,
कोई आता भी नहीं,
कभी -कभार केवल औपचारिकताएँ,
वह भी घर के बंटवारे की,
करना चाहते हैं सभी,
यहाँ की ख़ामोशी का बंटवारा भी.
-नवनीत नीरव-
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