गुजरते लम्हों की कुछ कसक
तो बाकी है,
आगे बढ़ चला गाँव, पर फिर
भी उदासी है.
लोग-बाग अब उलझते कम हरेक बात
पर,
अंदर की ख़ामोशी ही अब उन्हें
चिढ़ाती है.
सूनी राहों पर डरते थे, चलने
में अकेले सब,
उदासियाँ पक्के राहों संग, अंदर
ही मुस्काती हैं.
अस्त-व्यस्त से दिखते कभी खेत-खलिहान-दालान,
आज खेतों में पुआल-मशान धू-धू
जलायी हैं.
तब शिक्षा आती हर रोज मीलों
दूर पैदल चल,
अब तो गुलाबी तम्बुओं में नई
लंगर सजायी है.
कथा,गीत,लोरियाँ सुनातीं रात
को अम्मा-दादी,
अब दूर की सखियाँ आँगन गुलजार
कर जाती हैं. -नवनीत नीरव-
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