मंगलवार, 17 जुलाई 2012

तुम्हारी यादों के साये...

साँझ ढली पंछी सभी घर चले,
नदिया  थकी, कूल सारे उंघने लगे,
बिन  पतवार इक नैया किनारे लगी,
तुम्हारी यादों के साये मुझे घेरने लगे.


रात घनी होवे बेचैनी बढ़ती जाए,
झींगुर के शोर मेरी वेदना बढ़ाये ,
दूर माँझी विरह लोक-धुन सुनाये,
आशाएं जुगुनुओं सी जलती-बुझती जाएँ.
पीर  जिया की  यादों संग घनीभूत हो जाए,
भरी  नदी में मेरा मन प्यासा रह जाए.

मेला टूटा तब भीड़ भई बरसाती,
संग चले थे घर से छूटे संगी साथी
एक अकेला दरिया किनारे,
चाँद तारों का अनामंत्रित बाराती,
इसी  भीड़ में शायद मैं एकाकी हो जाऊं,
या विरह- मिलन के ख्वाबों में खो जाऊं .

-नवनीत नीरव-

1 टिप्पणी:

Vandana Singh ने कहा…

beautiful ...kai sabdo ka bahut sunder tarike se pryog kiya hai aapne