चाक चलता है दिन भर,
तब जाकर एक कुनबा है पलता,
खरीदी मिट्टी का बर्तन,
उधार के आँवे में पकता,
संग जलती है हमारी मेहनत,
आशंकित , थोड़ी बेचैन सी,
जिसे सँवारते हैं बड़े यत्न से,
रास्ते में बिकने के लिए,
ठोक-ठठाकर खरीदने के लिए,
कोई हाथों से बजा कर देखे,
कोई उलटकर धूप झांके , ,
तोल-मोल के आदी हैं सब,
कलाकार को वस्तु हैं समझे ,
बाजार तो यही सलूक करता है न !!
नानी के घड़े, गाँव की सुराही की बात ,
मुस्कुराकर हर कोई है करता,
पर वाजिब दाम देना है अखरता,
वही दस -पांच रूपए का तोल-मोल,
पुराने किस्से के हवाले संग झिक-झिक,
हमें मालूम है , हमने ही बेचा है,
माटी के बर्तन माटी के भाव,
पर क्या करें बाबू !
मजदूरी आसमान छुए है,
अब तो माटी भी यहाँ मोल मिले है,
हैरान न हो यही है सच्चाई,
पचासी का घड़ा, पचपन की सुराही.
-नवनीत नीरव -
1 टिप्पणी:
मर्मस्पर्शी!
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