मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

ग्राम उवाच

फ़ायदा नहीं है खेती में,
गाँवों में सुख नहीं है,
हम  हालात से मजबूर हैं,
सरकार  को हमारी सुध नहीं है !!१!!

विकास संस्थाएं क्या करतीं क्षेत्र में ,
प्रतिनिधि तक भी नहीं जानते,
"मांग" का राक्षस है नासमझ,
पेट इसका भरे तो भरे कैसे !!२!!

"विशिष्ट अधिकार" जिन्हें मिल जाए,
उनकी वो बपौती बन जाती है,
लोकतंत्र के उलट-फेर से ,
यहाँ कोई डरता नहीं है !!३!!

सुस्त  से सारे लोग है इन दिनों,
ख्वाहिशों के आसमां पर तारे गिने,
स्वार्थ निहित सारी गतिविधियां हैं ,
कौन ,किसकी , क्यों अब फ़िक्र करे? !!४!!

जो काम कल तक अपना था,
अब हो गया वो सरकार का,
खेती चौपट सबने की खुद की यहाँ की,
दोष सारा हो गया सरकार का !!५!!

गाँव अब बन गया नकलची,
चलने चला शहर की चाल,
आर्थिक -सामाजिक के सपनों में उलझ,
भूल गया अपनी ही चाल !!६!!

जो हैं यहाँ वो अपनी कब्र खोदें,
बात-बात पर नसीहतें दें,

सुनने को अब कौन यहाँ तैयार है,
नियम- कानून केवल फाइलें भरें. !!७!!

आज जुड़ना भी किसी "दल" से,
अपने लिए यह शर्म है,
जाति के नाम पर चलती सरकारें,
किन मायनों में यहाँ लोकतंत्र है. !!८!!

गाँधी ने सपने देख "ग्राम स्वराज" का,
पायी थी सबकी आलोचना,
नवभारत के निर्माण वाले,
भूले नए गाँवों की नींव डालना. !!९!!  

विनोबा  चले, जे० पी० बढ़े ,
फांसी चढ़े सबके लिए भगत सिंह,
किनके  सपनों  की बात किये वो आजीवन,
जहाँ हम खुद हैं आदमखोर भी निरीह भी.!!१०!!

-नवनीत नीरव-

3 टिप्‍पणियां:

Vandana Singh ने कहा…

आपका काम और कवितायेँ दोनों सराहनीय हैं नवनीत जी ....कीप इट उप :)

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

बहुत बढिया प्रस्तुति।बधाई।

दिगम्बर नासवा ने कहा…

कडुवे सच को लिखा है ...
रचना में यथार्थ उतर आया है साक्षात ... बहुत खूब ..