१
कितनी ही सर्दियाँ आई गयीं,
किन्तु इस बार की सर्दी का,
अंदाज कुछ निराला है ,
कोहेरे से ढका है पूरा दिन ,
और रात को पड़ता पाला है ।
सूरज की क्या बिसात जो,
लोगों को दर्शन दे जाये,
कैसे झांके चाँद बेचारा ?
कुहासे ने घूंघट जो डाला,
कहीं मफलर, कहीं स्वेटर,
कहीं टोपी , कहीं चादर,
कितने ही अंजन चेहरों को,
सर्दी ने रच डाला है ।
दृग शांत खामोश खेत हैं,
सड़कें और बाजार बंद हैं ,
गलियां सूनी पनघट सूना,
लोगों की जुबान बंद है,
चीड़ों की चहचहाहट सुने,
कुछ दिन हो गए,
मानों सबकी मुंह पर किसी ने,
बंद कर दिया ताला है ।
२
आइये चलें ,
शहर की फुटपाथ की तरफ ,
कडकडाती सर्दी से कांपते चिथड़ों में,
कितने ही खामोश दफ्न चेहरे,
और कितने ही लोग मिलेंगे ,
अलाव के पास ,
जो शायद अब बुझने को है।
छोटे -छोटे फुटपाथी पिल्ले,
जो शायद,
सर्दी से लड़ने के लिए ,
तैयार हो रहे हैं ।
सूरज निकलने का बाट जोहते ,
बूढ़े अपाहिज और लाचार भिखारी ,
तय नहीं कर पा रहे,
किसे कोसें ?
सूरज को , ठंढ को ,
या अपने भाग्य को ,
जिसने उनकी मरती आशाओं पर,
पानी फेर डाला है ।
-नवनीत नीरव -
3 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर!
आपकी कविता ने तो बस आज का सच उकेर कर रख दिया...
बिलकुल यही हाल है..
बहुत सार्थक हृदयंगम रचना...
Second half of the Kavitaa is very Heart touching,.....sach aur yathaarth se bharaa hua
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