बुधवार, 2 सितंबर 2009

युवा मंथन

(इस साल फिर से सूखा पड़ा हैशहरी क्षेत्र और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच जो आर्थिक खाई है, अब वो और गहरी हो जायेगीशहर फिर से कितने ही बेकार लोगों को गाँव छोड़ने पर मजबूर कर देगाकौन इनकी मदद करेगा ? और क्यों करेगा ?........ये बड़ा अहम् सवाल हैइस कविता के माध्यम से मैंने ख़ुद के और अपने जैसे युवा दोस्तों के आत्म मंथन की कोशिश की है। )

हवा को मालूम है उसे कहाँ जाना है,
संग
कितने सूखे पत्ते उड़ाना है,
जिंदगी
में कुछ कदम सादगी से रख,
कितने
पल रुकेगा इसका क्या ठिकाना है

समन्दर से लौटती उन कश्तियों को,
नीडों
में लौटते उन पंक्षियों को ,
ख़बर है समन्दर और आसमां की,
गहराई में पलता भयानक वीराना है

आपदाओं की मार से सहमे घरों में,
दुबकी हुई निरीह मानवता को ,
अपने
कम्बल की छाया दे दो तो,
ढलती शामों का वही आशियाना है

सड़कों
पर चल लेकिन संभल के,
तेरे अपनों में कुछ वहां हाथ पसारते,
मुट्ठी
भर चावल एक अदद रोटी ही,
समाज
का करता बंटवारा है

-नवनीत नीरव -

8 टिप्‍पणियां:

अपूर्व ने कहा…

philanthropic and touching

ओम आर्य ने कहा…

बहुत ही मार्मिक रचना......

Shivangi Shaily ने कहा…

bahut sachchai hai is kawita mein.

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

आप के आत्म-मंथन से शायद इस कविता की उत्पत्ति हुई है....

आपदाओं की मार से सहमे घरों में,
दुबकी हुई निरीह मानवता को ,
अपने कम्बल की छाया दे दो तो,
ढलती शामों का वही आशियाना है ।

सड़कों पर चल लेकिन संभल के,
तेरे अपनों में कुछ वहां हाथ पसारते,
मुट्ठी भर चावल औ एक अदद रोटी ही,
समाज का करता बंटवारा है ।
आपके सबल शब्द बहुत खूबी से इस आपदा को चित्रित कर रहे हैं...
किसी सड़क की तरह चलते हुए आपके सामानांतर सवाल हैं, जो इस सामानांतर समाज में जीते हुए सामानांतर लोगों से कुछ पूछना और कुछ बताना चाहते हैं.....
बहुत सुन्दर रचना....
और तस्वीर मुझे झारखण्ड की लग रही है अगर मैं सही हूँ तो.....
क्योंकि झारखण्ड मुझ में है....और मैं झारखण्ड में.....हर पल..

Vandana Singh ने कहा…

bahut badiya navneet ji ....ye atmmanthan hi aaj ke tim ki sabse badi jaroorat hai ..isi se uth khade hone ki chetna milegi

प्रिया ने कहा…

sach achcha laga...keep writing

Anjelanima_एंजेला एनिमा ने कहा…

बहुत बढिया रचना...

Satya Vyas ने कहा…

bahut sundar neerav . bahut achhe.

touching .