(मेरा मानना है कि यदि कविता बहुत लम्बी हो तो अक्सरहां उसके भाव तनु हो जाते हैं। जब बात ब्लॉग पर कविता लिखने की हो तो लम्बी कविता लिखने से आजतक मैं बचता रहा। परन्तु यह कविता जिसे मैंने आज लिखा है , न चाहते हुए भी थोड़ी लम्बी हो गई है आशा है कि आप इसे अपना प्यार देंगे। )
(१)कभी -कभी बीती बातें,
खट्टी मीठी गाँव की यादें,
मन को गीला कर जाती हैं।
जाने वह ,
कौन -सा पहर था,
जब शहर से,
नौकरी की चिट्ठी आई,
तुझसे क्या छुपाना ?
मेरा मन,
उड़ान भरने की कोशिश में था,
जैसे परकटा परिंदा,
पिंजरे से भाग जाना चाहता हो।
अपनों की बातों से,
सीना जो जला था मेरा,
जैसे अलाव में,
अधिक भुन गए हों कच्चे आलू,
रात आँखों में ही काट दी थी मैंने।
कुएं की जगत पर,
हाथ मुंह धोये थे,
आने के वक़्त ,
मुझे याद है ,
मेरी हाथों से छिटक कर,
न जाने कितनी दूर तक,
लुढ़का था वह,
पीतल का लोटा,
मानों कह रहा हो,
तुम्हें तनिक भी परवाह नहीं हमारी।
तुलसी मैया ने,
अपनी छाँव की आँचल,
मेरे ऊपर ओढा दी थी,
जुग-जुग जीयो,
पर जल्दी आना,
आँखों के कोरों पर,
ठिठके हुए आंसू देखकर,
मैंने जल्दी से,
अपना सामान उठाया,
डर था ,
कहीं आंसुओं के बहाव में,
मैं भी न बह जाऊं।
घर के दरवाजे पर लगे,
बेल के पेड़ से,
कुछ ज्यादा ही लगाव है,
अपने ही हाथों से,
रोपा था इसे मैंने
पत्तियां हवा के झोंकों संग,
बार बार यही कहती रहीं ,
अपना ख्याल रखना ,
जल्दी आना,
पर शायद मैंने,
सोच ही लिया था,
अब नहीं आऊंगा ।(२)सुरमई आकाश तले,
ताड़ ओर झरबेरियों वाली पगडण्डी पर ,
अपना सामान लिए ,
मैं चल पड़ा,
बचपन की यादों को निहारते ,
वही अमरुद बागान.......
वही पाठशाला ........
वही डाक्टर बाबू की क्लीनिक.....
और पुराना डाक बंगला......
जो मेरे मन की तरह जीर्ण-शीर्ण है ।
भागते टमटम की टापों के बीच ,
सारी बचपन की यादें ,
गुजर रही थीं ,
मानों ,
फिल्म चल रही हो,
रेलगाडी के आखिरी सीटी के साथ,
लगा,
मानों मेरा कलेजा,
मुंह को आ जायेगा।
धीरे-धीरे ट्रेन स्टेशन छोड़ रही थी,
मन शिथिल हो रहा था ,
वर्त्तमान और अतीत के बीच,
मैं झूल रहा था,
दरवाजे से खड़े होकर,
एक ही नजर में ,
आखिरी बार,
पूरे गाँव को निहार लेना चाहता था,
जो धीरे-धीरे,
रेल की पटरियों के बीच,
ओझल हो चला था ।
मन के सारे बांध,
मानों टूट गए हों ,
सारा चेहरा आंसुओं से,
भींग गया,
अब तो आँसू पोंछने वाला भी ,
कोई नहीं,
गुस्सा धीरे धीरे टूट रहा था,
और ,
मन गीला हो गया ।(३)आज कई साल बीत गए,
गाँव के दर्शन हुए ,
अकेलेपन से मेरी हालत है अजीब,
जैसे गाँव के बाहर हो पुरानी मस्जिद,
सोचता हूँ,
गाँव से रिश्ता कभी छूट नहीं पायेगा,
भले ही वह यादों का ही हो,
कुछ खास रिश्ता तो है हमारा,
वर्ना यूँ ही,
किसी के लिए,
मन गीला नहीं होता।
मन गीला नहीं होता।
-नवनीत नीरव-
(१)कभी -कभी बीती बातें,
खट्टी मीठी गाँव की यादें,
मन को गीला कर जाती हैं।
जाने वह ,
कौन -सा पहर था,
जब शहर से,
नौकरी की चिट्ठी आई,
तुझसे क्या छुपाना ?
मेरा मन,
उड़ान भरने की कोशिश में था,
जैसे परकटा परिंदा,
पिंजरे से भाग जाना चाहता हो।
अपनों की बातों से,
सीना जो जला था मेरा,
जैसे अलाव में,
अधिक भुन गए हों कच्चे आलू,
रात आँखों में ही काट दी थी मैंने।
कुएं की जगत पर,
हाथ मुंह धोये थे,
आने के वक़्त ,
मुझे याद है ,
मेरी हाथों से छिटक कर,
न जाने कितनी दूर तक,
लुढ़का था वह,
पीतल का लोटा,
मानों कह रहा हो,
तुम्हें तनिक भी परवाह नहीं हमारी।
तुलसी मैया ने,
अपनी छाँव की आँचल,
मेरे ऊपर ओढा दी थी,
जुग-जुग जीयो,
पर जल्दी आना,
आँखों के कोरों पर,
ठिठके हुए आंसू देखकर,
मैंने जल्दी से,
अपना सामान उठाया,
डर था ,
कहीं आंसुओं के बहाव में,
मैं भी न बह जाऊं।
घर के दरवाजे पर लगे,
बेल के पेड़ से,
कुछ ज्यादा ही लगाव है,
अपने ही हाथों से,
रोपा था इसे मैंने
पत्तियां हवा के झोंकों संग,
बार बार यही कहती रहीं ,
अपना ख्याल रखना ,
जल्दी आना,
पर शायद मैंने,
सोच ही लिया था,
अब नहीं आऊंगा ।(२)सुरमई आकाश तले,
ताड़ ओर झरबेरियों वाली पगडण्डी पर ,
अपना सामान लिए ,
मैं चल पड़ा,
बचपन की यादों को निहारते ,
वही अमरुद बागान.......
वही पाठशाला ........
वही डाक्टर बाबू की क्लीनिक.....
और पुराना डाक बंगला......
जो मेरे मन की तरह जीर्ण-शीर्ण है ।
भागते टमटम की टापों के बीच ,
सारी बचपन की यादें ,
गुजर रही थीं ,
मानों ,
फिल्म चल रही हो,
रेलगाडी के आखिरी सीटी के साथ,
लगा,
मानों मेरा कलेजा,
मुंह को आ जायेगा।
धीरे-धीरे ट्रेन स्टेशन छोड़ रही थी,
मन शिथिल हो रहा था ,
वर्त्तमान और अतीत के बीच,
मैं झूल रहा था,
दरवाजे से खड़े होकर,
एक ही नजर में ,
आखिरी बार,
पूरे गाँव को निहार लेना चाहता था,
जो धीरे-धीरे,
रेल की पटरियों के बीच,
ओझल हो चला था ।
मन के सारे बांध,
मानों टूट गए हों ,
सारा चेहरा आंसुओं से,
भींग गया,
अब तो आँसू पोंछने वाला भी ,
कोई नहीं,
गुस्सा धीरे धीरे टूट रहा था,
और ,
मन गीला हो गया ।(३)आज कई साल बीत गए,
गाँव के दर्शन हुए ,
अकेलेपन से मेरी हालत है अजीब,
जैसे गाँव के बाहर हो पुरानी मस्जिद,
सोचता हूँ,
गाँव से रिश्ता कभी छूट नहीं पायेगा,
भले ही वह यादों का ही हो,
कुछ खास रिश्ता तो है हमारा,
वर्ना यूँ ही,
किसी के लिए,
मन गीला नहीं होता।
मन गीला नहीं होता।
-नवनीत नीरव-
18 टिप्पणियां:
sahi aise hi nahi hoti hai man gila bina kisi karan ...........kuchh to hota hi hai
कविता पढते-पढते मन गीला हो गया. बहुत सुन्दर भाव पिरोये है. यादो की एक सिलसिलेवार दास्तान है ये. बहुत सुन्दर प्रशंसा के लिये शब्दो की कमी से लाचार हू.
बहुत सुन्दर भाव....लाजवाब. कभी मेरे ब्लॉग पर भी पधारें !!
bahut hi bhavbhini prastuti.
बेहतरीन प्रविष्टि । धन्यवाद ।
सचमुच यादें मन को गीला कर ही जाती हैं......ऐसी ही कुछ यादें हम सभी के साथ जुडी होती हैं.....अच्छी कविता.....
साभार
हमसफ़र यादों का.......
कुछ खास रिश्ता तो है हमारा,
वर्ना यूँ ही,
किसी के लिए,
मन गीला नहीं होता।
मन गीला नहीं होता।
mann mein umade khayal har lafz se bayan ho rahe hai,apna chota gaon yaad aa gaya.dil ko chu liya rachana ne,behad sunder.
मन गीला होने से ही पता चलता है कि कोई खास रिश्ता है बहुत सुन्दर भावमय अभिव्यक्ति है बधाई
मन आंखों के रस्ते सदा गीला होता है
उसी रस्ते से मन रंगीला भी होता है
मन सब कुछ तो हो पर अनमना न हो
यह वो सपना है जो भीना होता है
ati sunder. aapko pehli bar padha. kya khoob likhte hain.
बेहतर कविता...
स्मृति की भावुक पीडाओं को लंबा स्पेस चाहिए ही...
लम्बी होने के बाद भी पूरे समय बांधे रखा. रचना सफल हुई, बधाई.
कभी -कभी बीती बातें,
खट्टी मीठी गाँव की यादें,
मन को गीली कर जाती हैं।
..............
पर शायद मैंने,
सोच ही लिया था,
अब नहीं आऊंगा ।
behterien !!
yaadein acchi ho ya buri hamesha rulati hain !!
kavita padhte- padhte ek tasveer kheenchti chali gai ..... achcha lekhan
... sundar bhaav, sundar rachanaa !!!!
yaar mazzzza aa gaya!!! kya baat hai, u knw wat i dont read kavitas but yes i wil strt a new hobby soon. yaar all thanx 2 u!! beautifully u hav made me 2 recall ma memories of my village. best wishes to u!!!!!
apke sath mera man bhi gila ho gaya, behtarin rachana ke liye shukriya
waah bahut bahut bahut sunder rachna hai har pankti man me utarti gayee ..
apni jameen se jude rehne k anubhav hi bahut sunder hote hai .apki ye rachna sach me bha gayee
उड़ान भरने की कोशिश में था,
जैसे परकटा परिंदा,
पिंजरे से भाग जाना चाहता हो। bahut badiya
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