(कई बार हम मानव कुछ ख्वाब बुनते हैं....सच्चे ख्वाब। सच्चे इसलिए क्योंकि हम उन्हें पूरा करने की हर सम्भव कोशिश करते हैं । पर कई बार ऐसा होता है कि हम जो बात सोचते हैं उसे पूरा करने में काफी वक्त लग जाता है। कई बार विपरीत परिस्थितियों का सामना भी करना पड़ता है...खास कर युवा वर्ग को। ये कविता मैंने युवा मन और उनकी सोच को ध्यान में रखकर लिखी है .......)
भागते रास्तों में बिछड़ने का डर है,
क्या कहूं ?मुझे ख़ुद ही भटकने का डर है ।
सुबह से शाम तक संग चलता रहा,
अजनबी दोस्तों से मिलता चला ,
कई दास्ताँ समेटे अपनी आंखों में,
जीवन के रंगों को पढ़ता हुआ।
चल रहा मैं मंजिलों की खोज में,
बेदर्द मौसम की तपिश भूल के,
तंग टेढ़ी गलियों में घिसटता हुआ,
अनमने ढंग से आगे बढ़ता हुआ,
ख़ुद के भीड़ का अंश बनने का डर है,
क्या कहूं ?मुझे ख़ुद ही भटकने का डर है ।
सोचता हूँ कहीं पल भर ठहरूं,
यहाँ तो दम लेने की फुरसत नहीं,
समय की कीलें भागती हैं हमें,
जिंदगी इतनी तेज भाग सकती नहीं ,
बहुत से पल जिए हैं जिंदगी के,
उमंगों में ख़ुद को डुबोते हुए,
भागते रंगीन तितलियों के पीछे,
वक़्त को अपने पीछे छोड़ते हुए,
अब तो समय बीतने का डर है,
क्या कहूं ?मुझे ख़ुद ही भटकने का डर है ।
-नवनीत नीरव-
5 टिप्पणियां:
बहुत सुन्दर रचना आपकी मँज़िल की तलाश संपूर्ण हो शुभकामनाये़ बहुत अच्छा लगता है जब कोई छोटी उम्र के लेखक को देखती हूँ क्यों कि मुझे ये अवसर नसीब नहीं हुआ था आकाश की बुलन्दियों को छूओ
bahut khoob bahut hi sunder rachna hai ..uva man or khabo ke priti apka ye kavita prayaas accha laga ...
ख़ुद के भीड़ का अंश बनने का डर है,
क्या कहूं ?मुझे ख़ुद ही भटकने का डर है
इंसान अक्सर डरता रहता है.............पर जो चल पड़ता है वो मुकाम तक पहुँच ही जाता है............ अच्छी रचना है.बधाई
सचमुच लाजवाब और बेहद तत्कालीन! मन खुश हो गया :)
Bhavpurna abhivyakti.Badhai.
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