सोमवार, 18 फ़रवरी 2013

रंगीन कंचे


लाल, पीले, नीले, हरे कंचे
अपनी दोनों अंजुरियों से बटोरकर,
बेतहाशा भागा था मैं,
छल से तुम पर अपनी जीत दर्ज कर,
डर था तुम्हारे प्रतिरोध का,
भय था कंचे छिन जाने का.

न जाने कितनी देर तक भागता रहा था,
सरसराती गेहूं की बालियों के बीच,
सरसों की चूनर में उलझते गिरते,
सिर्फ भागना ही था मुझे,
सो भागता गया एक दिशा ही में,
साँस फूलने लगी थी,
मटर- खेसारी के मेढ से,
रूककर-पलटकर देखा था तुमको ,
यह आभास कर कि तुम मेरे पीछे नहीं हो.

और तुम खड़ी रही थीं बेपरवाह,
उसी शिवालय के समीप,
बौराए आम के गाँछ के नीचे,
चुपचाप मुझे निहारती हुईं,
एक हल्की-सी मुस्कान चेहरे पर,
जैसे सूर्ख लाल हुए हों पलाश,
तुम्हारी नजरों में कुछ अनोखा था,
एक अनजाने एहसास से,
भर उठा था मैं अचानक,
एक अपनापन-सा महसूस हुआ तुममें,
अचानक जैसे खिल गयी हों अलसी पूरे बधार में,
पीली धूप ने मानों सुनहला कर दिया था.

हर बरस बसंत आते ही,
जाने क्यूँ पीला पड़ जाता हूँ ?
धूप मेरी खिड़की से मेरे जेहन में,
बेरोक टोक आती-जाती रहती है,
चंद गजलें पास के दरख्तों से आती सुनाई देती हैं,
और हर तरफ तुम्हारे “रंगीन कंचे”,
गुलशन गुलजार कर जाते हैं.

-नवनीत नीरव-

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