हर सुबह ढूंढा करता हूँ मैं,
ऑफिस की चाबियाँ, पर्स, घड़ी,
और न जाने कुछ-कुछ,
थोड़ी देर बड़े संयम से,
खोजता फिरता हूँ इधर-उधर,
अपने दिमाग को रिवाइंड करते-करते,
हाँ, शायद यहीं रखा था मैंने,
फिर थोड़ी हडबडाहट से,
भागता फिरता हूँ बीतते समय को देख,
शायद आज ऑफिस के लिए,
लेट न हो जाऊँ.
घड़ी जो अब तक सुबह से ही,
अलसाई थी अचानक ही,
तेजी -सी आ जाती है उसमें,
और हताशा मुझमें,
कभी किताबों की शेल्फ टटोलता हूँ,
कभी बेड के तकिए उलटता हूँ,
कभी सोफे की दरार झांकता,
या फिर मेज पर अख़बार खंगालता.
एक सामान की खोज में,
न जाने कितने खोये सामान मिल जाते हैं,
जिसको भूला था मैंने पिछले हफ्ते,
ढूँढने -टटोलने के क्रम में,
खुद पर खीझते हुए,
कभी पश्चाताप से, कभी खेद जताते हुए,
बडबड़ाता हूँ मैं ,
और न जाने कितने सामान बिखेर जाता हूँ,
यार! मैं इतना भूल्क्कड़ कैसे हो गया?
पहले तो मैं ऐसा नहीं था,
कई बार तो ऐसा भी होता है,
सामान सामने होते हैं और दिखाई नहीं देते,
मन तो ऑफिस के रस्ते की
ट्रैफिक पर फँसा होता है न!
और फिर वो मिल जाता है,
जो शायद गुमां नहीं था.
पहले अफ़सोस करता हूँ,
फिर शर्मिंदा होता हूँ,
एक नजर दौड़ाता हूँ,
दीवार पर टंगी मुस्कुराती घड़ी की ओर,
जो कह रही होती है,
जाओ आज छोड़ दिया तुमको,
एक लंबी साँस लेकर,
हल्का करना चाहता हूँ खुद को,
फिर कमरे से बाहर निकल जाता हूँ.
और बिखरे सामान वैसे ही पड़े होते हैं,
जिनमें मुझे कल फिर खोजना होगा,
कुछ गुमशुदा सामान.
-नवनीत नीरव-
2 टिप्पणियां:
lajavaab ....ye sabhi k saath hota hai ..achha laga padhna :)
लगता है अभी आप अकेले हैं ..सामान खोजने वाली को ले आईये ..खोजने कि ज़रूरत नहीं रहेगी ...अच्छी अभिव्यक्ति
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