रविवार, 22 अगस्त 2010

सयाना यार

घर से बाहर निकलो तो , हर शख्स अनजाना लगता है,
छाँव कहीं भी मिल जाती है, पर दरख़्त बेगाना लगता है.


शाम ढले घर की सारी खिड़कियाँ खुल जाती हैं,
पर किस्मत से भी कहाँ यहाँ, कोई यार पुराना मिलता है.

उदासियों की मोमबतियां जो रातों को दिल में जलती हैं,
जलते –बुझते प्रकाश में भी, यह शहर वीराना लगता है.

कहते हो तुम भूल जाओगे, कल तक हमारे शहर को “नीरव”
कैसे भूलूं उन गलियों को, जिनसे कुछ याराना लगता है.

कल तक जिन लम्हों की ऊँगली, पकड़ के घूमा करता था,
उन यादों का जिक्र करूँ तो, कहें सब यार सयाना लगता है.

-नवनीत नीरव -

3 टिप्‍पणियां:

Vandana Singh ने कहा…

neerav ji jus lov this cretion ..sahi me esa lag rha hai jaise maine hi likh di ho ..sorry to say tht .bahut acchi agi ....thnks for writing it :)

डिम्पल मल्होत्रा ने कहा…

कुछ भी भूलना इतना आसान नहीं होता.भूले बिसरे चंद अफ़साने याद आये.तुम याद आये तुम्हारे साथ जमाने याद आये...

Mahendra Singh ने कहा…

नीरव बाबू
लिखते ही रहिये ! नीरव का कलरव ..बहुत आनंद देता है