शनिवार, 26 जून 2010

मजदूर

हर रोज सुबह –सुबह,
चौराहे पर दिखता है वह,
बड़ी ही बेचैनी से,
बार –बार मिन्नतें करते हुए,
साहब! मुझे मेरे पैसे दिला दो.

वह न जाने कब से आ रहा है,
दिन भर गुजारिश करता है,
फिर वापस लौट जाता है,
कुछ और नहीं सुन पाया मैं,
आज तक सिवाय इसके,
साहब! मुझे मेरे पैसे दिला दो.

हर सुबह उसके चेहरे पर,
एक चमक -सी होती है,
जो दिन के साथ,
फीकी होती जाती है,
ज्यों –ज्यों पहर गुजरता है,
निवेदन आग्रह बन जाता है,
और शाम ढलते ही उसकी आशाएं,
अस्त हो जाती हैं,
बड़ी मुश्किल से रुंधे गले से,
एक अंतिम आग्रह करता है,
साहब! मुझे मेरे पैसे दिला दो.

आज वह हताश है,
आँखें बुझी-बुझी सी हैं,
शायद जगा हुआ है रात भर,
कुछ सोच रहा है,
कि आज खुद का सौदा कर देगा,
किसी बड़ी कम्पनी के बिचौलिए के हाथों,
कुछ महीनों के लिए,
भले ही घर छोडना होगा,
कम से कम पैसे तो आ जायेंगे,
घर की जरूरतें तो पूरी होंगी,
वह बेबस तो नहीं होगा ,
बच्चों और परिवार के सामने,
और बार-बार घिघियाना तो न पड़ेगा,
साहब! मुझे मेरी मजदूरी के पैसे दिला दो.