देखते-देखते वक्त गुजर गया,
आखिर जाने के दिन आ गए,
एक –एक करके बना था जो कारवां,
उससे बिछड़ने के दिन आ गए.
आज सुबह –सुबह मन में,
एक ख्याल आया,
जो सामान इकट्ठे किये हैं मैंने,
इन गुजरे सालों में,
क्यों न उनको समेटता चलूँ,
जाना तो अवश्यम्भावी है,
क्यों न मन की गिरहें खोलता चलूँ,
इसी उधेड़बुन में,
अपनी आलमारी का दरवाजा खोला,
यादों के कुछ पन्ने,
जो उपरी शेल्फ में रखे थे,
(जहाँ अमूमन मेरी नजर नहीं जाती है)
फडफडा कर गिर पड़े,
यही कहते हुए,
हमें भी साथ ले चलना,
मैं कुछ देर यूँ ही खड़ा रहा,
उन्हें निहारता रहा,
हवा बार –बार उन्हें,
उलटती –पलटती रही
मैं उन्हें बार-बार सीधा करता रहा,
कुछ नोट्स, कुछ टेस्ट पेपर,
कुछ एसाइन्मेंट के पन्ने,
जिन्हें आज तक मैं पूरा नहीं कर पाया,
कुछ भी हो,
यादें तो हमेशा अपनी ही होती हैं न,
न जाने कितनी ऐसी यादें हैं,
जिन्हें मैं अपने साथ ले जाना चाहूँगा,
पर ऐसा कहाँ संभव है,
हर विशेष मौकों की तस्वीरें,
आज तक जमा करता रहा हूँ,
कि हर गुजरे लम्हे को जी सकूं,
आपको महसूस कर सकूं,
अब तो मेरा लैपटॉप भी मना करता है,
इतनी यादों को समेटने से,
हम तो यादें भूल जाते हैं,
वह तो यादें संजोता है,
उन्हीं कभी भूल नहीं पाता.
इस अंतिम पड़ाव पर,
जब भी गुजरे पलों कि डायरी खोलता हूँ,
एक ही बात जेहन में आती है,
जहाँ से शुरुआत की थी मैंने,
मेरा हाथ पकड़ कर,
मुझे मेरे स्कूल ले जाया गया था,
कई रोते हुए,
कई खामोश चेहरों को देखा था मैंने,
जो इस सदमें से उबर नहीं पाए थे,
कि अपनों ने ऐसा क्यों किया ?
“अच्छे बच्चे नहीं रोते हैं”
शायद किसी ने बताया था मुझे,
और मैं ऐसा न कर सका था,
अब तो अक्सरहां ऐसा होता है,
मुझे कुछ नहीं लगता है,
शायद मैं बड़ा हो गया हूँ,
आज फिर वही मैं हूँ,
केवल लोग बदल गए हैं,
जगह बदल गयी है,
पर समय खुद को दुहरा रहा है.
गुजरते पलों के साथ,
कितना कुछ बदल जाता है?
समय न तो कभी लौटता है,
न हमें लौटने की इजाजत देता है,
और हम भी,
या तो चुप्पी साध लेते हैं,
या फिर किसी मोड़ पर खड़े होकर,
उस रस्ते को निहारते रहते हैं,
जहाँ से अपनों ने विदा किया था,
हजारों लोग तो उस रस्ते मिलते हैं,
पर वो नहीं मिलता,
जिसकी हम राह तकते हैं.
चलो आज मिल कर,
इन पलों को जीया जाये,
यहाँ आने पर तो नियंत्रण न था हमारा,
-नवनीत नीरव -
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