बुधवार, 14 अक्तूबर 2009

हमशक्ल

अचानक ही उस दिन
महसूस हुआ था मुझे,
कि तुम मेरे कैम्पस में हो,
जब देखा था मैंने,
वही गुलाबी सूट पहने,
(जिस पर मैं फ़िदा था)
सिंगल सी चोटी बनाये,
ठीक तुम्हारे कद वाली
उस सांवली सी लड़की को,
दूर से

मन की भावनाएं,
जो उनींदी सी थीं,
मानों उन्हें सुबह का ठंढा झोंका,
अचानक ही छू गया हो,
विश्वास नहीं हो रहा था,
कि वो तुम ही हो,
खुद के यकीन की खातिर,
कई बार देखा उसे मैंने,
छुप-छुपकर,
कभी कॉलेज की गैलरी से,
कभी लाइब्रेरी की शेल्फ से,
कभी कैफेटेरिया के नजदीक,
कभी गुजरते हुए हरे लॉन से,
सिर्फ यही जानने के लिए,
कहीं वो तुम ही तो नहीं

अब तो छुपकर उसे देखना,
मेरी आदत बन रही है,
मैं जानता हूँ,
कि वो तुम नहीं हो,
फिर भी जाने क्यूँ मैं,
एक अन्जाना आकर्षण,
महसूस कर रहा हूँ

- नवनीत नीरव -

1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत भावपूर्ण रचना.