सोमवार, 27 अप्रैल 2009

याद


वो शायद समय ही था,
जिसके प्रभाव में ,
हम भी आ गए ।
मुमकिन है कि-
अब न तो मैं ,
और न ही तुम ,
एक दूसरे से मुखातिब होंगे।
इक अनजाने जंगल से ,
अपनों की बस्ती में,
आन बसा हूँ जरूर,
पर मन खाली है ।

तुम तो शायद
अंधेरों में घुल गई होंगी ,
पर तारों से पूछ के बताना जरा ,
मेरी बस्ती का कौन-सा कमरा,
रात भर टिमटिमाता है ।

-नवनीत नीरव -

4 टिप्‍पणियां:

Alpana Verma ने कहा…

तुम तो शायद
अंधेरों में घुल गई होंगी ,
पर तारों से पूछ के बताना जरा ,
मेरी बस्ती का कौन-सा कमरा,
रात भर टिमटिमाता है ।

waah!bahut khuub!
bahut hi sundar panktiyan hain!

achchee kavita hai Navneet ji.

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

samay ka prabhaav tha jab mile the,,aour yah bhi samay ka prabhaav he ki ab ek doosre se mukhaatib nahi honge.../////
rchna achchi he aapki, badhai

sandhyagupta ने कहा…

Atyant sundar abhivyakti.

प्रिया ने कहा…

तुम तो शायद
अंधेरों में घुल गई होंगी ,
पर तारों से पूछ के बताना जरा ,
मेरी बस्ती का कौन-सा कमरा,
रात भर टिमटिमाता है

No doubt .. Kavita to bahut achchi hai..but..ye jo lines hain wo thodi si khatki mujhe :-) ye bhi to ho sakta hain ki wo suraj se mil gayi ho:-)