आज की रात फिर गुत्थम-गुत्था हैं,
खामोशियाँ उनके भीतर,
बिस्तर पर औंधे लेटे हुए
एक दूजे को समझाने की कोशिश में,
दर्ज करातीं हुईं अपनी असहमति,
लगभग हताश और खीजती हुईं.
एक चुप्पी अपने विन्यास बढ़ाती है ,
बाहर के अँधेरे को दोनों के भीतर
उड़ेलती हुई,
सांय-सांय करता हुआ,
कमरे का सन्नाटा,
चक्रवात की तेज हवाओं सा,
बढ़ाता हुआ दोनों की बेचैनी-अकुलाहट.
गहरी सांसें जो बिस्तर से लगी दीवार
पर,
टकराते ही दम तोड़ती हैं वाचाल-
अनुत्तरित,
महसूसते सम्प्रेषण-संवाद के खालीपन
को,
जो टूटती है अक्सर फुसफुसाहट से,
मानों कोई दरो दीवार से अपने कान
लगाये,
सुनना चाहता हो कमरे की धड़कनें.
घटाटोप अँधेरा भ्रम पर बरसाता उल्काएं,
पपनियों पर लटकती हुई
जलराशियों के पृष्ठ तनाव को,
आहिस्ता-आहिस्ता तोड़ते हुए,
पिघलाते हुए दिलों में जमे कसैलेपन को,
घुले हुए क्षार जैसे, मन की कड़वाहट को,
सुनगाते हुए एहसासों की गर्माहट को.
पौ फट रही है ,
निढाल पड़े हैं दो जिस्म,
झुलफुलाह कमरे में,
पसरी हुई गुलाबी- सफ़ेद नीरवता के
दरम्यां,
खिलखिला रहा है एक नन्हा पौधा,
बिलकुल लाल कोंपल वाला,
एक विश्वास की आभा दिपदिपा रही है,
उनके चेहरे पर सुस्मित,
जो उम्मीदतन अगले अँधेरे तक,
कायम रहेगी.
- नवनीत नीरव-
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