बुधवार, 11 मार्च 2009

होली

होली और होस्टल

आज होली के दिन

बैठा हूँ मैं,

अपने होस्टल के कमरे में,

इस इंतजार के साथ ,

शायद होली का रंग गहराए ,

और दोस्तों कि टोली निकल पड़े,

रंगों और पिचकारियों के संग,

अबीर गुलाल उडाने .

बचपन में अक्सर ही जिद किया करता,

घर से बाहर होली खेलने की.

पर माँ हर बार मना कर देती ,

शायद उन्हें लगता ,

इन टोलियों की जमघट में,

कहीं उनकी शरारत की भेंट न चढ़ जाऊँ.

पर भला मैं कहाँ समझ पाता ,

मेरा मन बाहर जाने की कोशिश करता,

कभी दरवाजे की दरारों से ,

कभी खिड़कियों के सींकचों से ,

कभी छत की अटारी से

कभी पिछवाडे की फुलवारी से .

घर के पकवानों की खुशबू भी ,

मुझे रोक नहीं पाती.

आज भी मुझे लगता है

मुझमें बचपना शेष है .

आज वही होली है ,

कमरे के दरवाजे खुले हैं

खिड़कियों में सींकचे भी नहीं हैं

मुझे रोकने वाला भी कोई नहीं

पर न जाने क्यों मेरा मन ,

बाहर जाना नहीं चाहता

बाहर जाना नहीं चाहता.

-नवनीत नीरव-