होली और होस्टल
आज होली के दिन
बैठा हूँ मैं,
अपने होस्टल के कमरे में,
इस इंतजार के साथ ,
शायद होली का रंग गहराए ,
और दोस्तों कि टोली निकल पड़े,
रंगों और पिचकारियों के संग,
अबीर गुलाल उडाने .
बचपन में अक्सर ही जिद किया करता,
घर से बाहर होली खेलने की.
पर माँ हर बार मना कर देती ,
शायद उन्हें लगता ,
इन टोलियों की जमघट में,
कहीं उनकी शरारत की भेंट न चढ़ जाऊँ.
पर भला मैं कहाँ समझ पाता ,
मेरा मन बाहर जाने की कोशिश करता,
कभी दरवाजे की दरारों से ,
कभी खिड़कियों के सींकचों से ,
कभी छत की अटारी से
कभी पिछवाडे की फुलवारी से .
घर के पकवानों की खुशबू भी ,
मुझे रोक नहीं पाती.
आज भी मुझे लगता है
मुझमें बचपना शेष है .
आज वही होली है ,
कमरे के दरवाजे खुले हैं
खिड़कियों में सींकचे भी नहीं हैं
मुझे रोकने वाला भी कोई नहीं
पर न जाने क्यों मेरा मन ,
बाहर जाना नहीं चाहता
बाहर जाना नहीं चाहता.
-नवनीत नीरव-