सहमा-सहमा
सा बीतता है हरेक पल,
जलती
हुई सूजी बोझिल आँखें,
पर
नींद गुमनाम सी गुमशुदा,
कोई
काम पूर्ण हो ऐसा नहीं है,
इधर-उधर
की सोच में उलझता हूँ,
अकेलापन
धीरे-धीरे मार रहा मुझे,
नियमित
दिनचर्या और अनुशासन भंग कर,
सूखे
गले और मुरझाते तैलीय चेहरे ,
हर
बार तर करता हूँ,
बाहर
की गैलरी में थोड़ी देर टहलता हूँ.
पर
कमबख्त नींद नहीं आती है.
एक
खड्का-सा लगता है,
चौंकता
हूँ अपनी जगह पर बैठे-बैठे,
सहसा
एक नजर खिड़की की तरफ,
रात
एक टक निहारे जा रही है बाहर से,
कोई
खुशबू सी आती है रह- रहकर,
दरवाजे
पर रतजगी रातरानी से,
मानों
किसी प्रियतम के इंतजार में बैठी हो,
नहा-धो
खुले केशों संग गमकती हुई,
धत्!
ऐसा नहीं कहते रात में,
अपशकुन
होता है, बुरा साया पड़ता है,
कौन
समझाए भला कि इससे बुरा क्या ?
जब
रातों को नींद नहीं आती है.