रविवार, 27 दिसंबर 2015

खुद के गुम होते निशान


कहीं पढ़ा था किताबों में
खोजोगे तो मिलेगा
शायद तभी से उसके तलाश की
योजना बना रहा हूँ
मेरे हिसाब से जो गुम हो गया है
जिक्र जिसका अक्सर कर जाता हूँ
किसी मॉल में बैठकर
ऑर्डर देते हुए कैपचिनो
या फिर मेट्रो के लंबे सफर में
वक्त काटने खातिर किए गए गप्प में
कि गाँव गुम हो गए, निशान रह गए
इस हकीकत से अनभिज्ञ  
कि गुम तो मैं गया हूँ।
अपने गाँव के बाहर की,
किसी भूल भूलैया में,
जहां से अब केवल
नजर आते हैं मुझको,
खुद को तसल्ली देने वाले
अतीत के कुछ निशान।  


-नवनीत नीरव-