बुधवार, 12 मार्च 2014

पुरनिया गाँव और कठजात

बरसों से विरासतों, संस्कारों को सँभालते,
आहर, खेत-खलिहान, बस्तियों की,
सुघड़ मनोहारी छवियाँ बनाते,
अब उब गया है पुरनिया गाँव.

आखिर कब तक ढोता रहे,
अलगाव-विलगाव, जुड़ना-टूटना,
अपमानित होना बात-बात पर,
दुहाई देना पिछड़ेपन की,
यह किसी अकेले के वश की बात है भला?
जिनको खड़ा किया वो समझने तो से रहे.

भागना चाहता है अब वह इनसे,
गुजारना चाहता है सुकून के चंद बचे दिन,
पर कैसे, किसे सौंपे यह ज़िम्मेदारी?
यही है अब उसकी लाचारी.

कुछ सवाल हैं अनुत्तरित उसके मन में,
अपने पिछड़ेपन को लेकर,
जबकि खुद से उसने कमी न की,
किसी के परवरिश में,
फिर भी न जाने क्यों ?
कराहती रहती है वह बँसवारी,
पक गए हैं कान अब उसे सुनते हुए,
कोई आकर उसे चुप क्यों नहीं करा देता.

कब तक करे वह सबकी फ़िक्र, खैर मकदम,
आखिर उसकी भी तो अपनी जिंदगी है.
मुट्ठियाँ खुलवाकर जबरन ले लिया विश्वास,
दे दी झूठी तसल्ली आने की अबके त्योहार पर,
जाने वाले लौटने से रहे अब,
फिर जाने की इजाजत ही क्यों ली?

दर्द सीमाएं लांघ चुका है,
बाईपास कराने के बाद,
मोह भी भंग हो गए सब,
भावनाओं की शिराएं मुरझा गयी हैं,
हवा के झोंकों में हल्की गर्माहट है,
उमस सा रहता है अब चारों तरफ़.

सुना है पड़ोसियों से,
कभी-कभी भयंकर दर्द उठता है,
आजकल उसके सीने में,
पर कठजातों से आँसू नहीं निकलते.

-नवनीत नीरव-

बुधवार, 5 मार्च 2014

वैज्ञानिक मनोवृत्ति और समाज


बाबू ! तू मिट्टी खाता है,
पत्थर, पेन्सिल, सिक्के,
सबको मुंह में डालता है,
गन्दा है ये सब,
ऐसा नहीं करते हैं.
(छीनते हुए हाथों से)

मुन्नी! कल जो दिया था तुम्हें,
चाबी वाला खिलौना,
अरे! तुमने तो पुर्जे-पुर्जे खोल दिए,
तोड़ दिया न तुमने इसे,
आज से कुछ भी नहीं मिलेगा तुम्हें.
(घूरती हुई दो बड़ी-बड़ी आँखें) 

भरी दुपहरी में चैन नहीं है!
रात में छत पर क्या कर रहे हो ?
बारिश में भींग ही गए न तुम,
सब कांटते-छाँटते क्यों रहते हो,
गिरा दी न मेरे कैंची की धार.
(कपड़े काटने और मूंछ छांटने की कैंची दिखाते हुए)

कहीं पिकनिक पर जाने की जरूरत नहीं,

एग्जाम सिर पर हैं पढ़ो,
दोस्तों के संग ज्यादा आवारागर्दी मत करो,
फ़लाने बाबू का लड़का कितना सभ्य है.
फर्स्ट आये तो दुपहिया दिला दूंगा.
(छोटे-छोटे लक्ष्य मीटर के टेप से नाप कर तय करते हुए)

कुछ तयशुदा काम,
घिसे-पिटे पूर्व नियोजित तरीके,
एक आत्मघाती दस्ते की तरह घेरे रहना,
मुल्लमें की तरह चढ़ना सोच का नई सोच पर,
जैसे जमना पत्थर के फर्श पर काई का.
( जाने-अनजाने कुंद होती वैज्ञानिक मनोवृतियाँ इस समाज की)

-नवनीत नीरव-