गुरुवार, 5 मई 2011

बिंदियाँ


लाल हरी नीली पीली,

चमकती हैं बिंदियाँ,

गोरी के माथे पर,

जब सजती हैं बिंदियाँ।

सूरज-सी गोल-गोल,

चंदा-सी आधी,

टेढ़ी-मेढ़ी मछली सी,

जो लगती है प्यासी,

अनगिनत रंगों और,

आकृतियों में ढलकर,

मिलन की हमेशा,

चाह जगाती हैं बिंदियाँ।


आलते और कुमकुम संग,

बचपन के श्रृंगार सी,

अच्छत रोली काजल संग,

अम्मी-दादी के दुलार सी,

सिंथेटिक वाल्वेट संग,

किसी नए फैशन सी,

प्रियतम के चाह में,

नैनों के दर्पण सी,

ढलती हुई उम्र में,

हल्के हुए रंगों सी,

अलग-अलग भाव में,

कुछ नयापन ले आती हैं बिंदियाँ।


-नवनीत नीरव-