बुधवार, 21 जुलाई 2010

एक बूढ़ा रिक्शेवाला

उम्र के इस ढलान पर,

जहाँ जिंदगी थोड़ी तेज रफ़्तार से,

बिना रुकावट के,

फिसलनी चाहिए,

उसकी जिंदगी आज भी,

रुक –रुक कर,

धीमे-धीमे,

बेदम –सी चलती है.

शहर की हरेक गलियां,

हर मुहल्ले से,

गुजरा है वह अनेकों बार,

छोटी-छोटी खुशियाँ बटोरने की खातिर,

यह दुर्भाग्य ही तो है उसका,

जो उन्हें संजो न सका आज तक.

जिन बच्चों को स्कूलों तक,

पहुँचाया करता था,

जिन बाबुओं को दफ्तर तक,

छोड़ा करता था,

समय के साथ,

सबने उन्नति की,

सबने तरक्की की,

पर वह आज भी वहीँ है,

उसी चौराहे पर,

चौकन्नी आँखों से,

किसी का इंतज़ार करता हुआ,

सबसे पूछता हुआ-

बाबू कहाँ चलना है ?

ज्यादा बदलाव तो नहीं देखा है,

मैंने उसमें,

सिर्फ नाम बदल गया है,

पहचान बदल गयी है,

कि जो कल तक कहलाता था रिक्शेवाला,

अब बुलाते हैं सब उसे-

“बूढ़ा रिक्शेवाला”.........


- नवनीत नीरव -