चांदनी रात में,
जब बरसात होती है,
उस समय,
वह स्याह रात भी,
कुछ खास होती है,
खिड़की में खड़े होकर,
आकाश की ओर देखता हूँ,
चंदा की रोशनी संग,
झरती हुई बूंदों को,
निर्मल चाँदनी में,
चमकती हुई बूंदों को,
लगता है आसमान में रहने वाले,
अनगिनत तारे टूटकर,
आज धरती पर आ रहे हैं।
न जाने कितनी देर तक खड़ा रहता हूँ,
इस इंतजार में
यही सोचते,
शायद इन तारों संग,
मेरे दादू भी आते हों,
जिन्हें मिल नहीं पाया मैं,
आजतक अपने बचपन से
-नवनीत नीरव-
रविवार, 30 अगस्त 2009
रविवार, 23 अगस्त 2009
मसूरी
(मैं अपनी समर ट्रेनिंग के लिए इस बार देहरादून में था। रात में गेस्ट हॉउस की छत से मसूरी दिखाई देती थी। उसी को देख कर मैंने कुछ पन्तियाँ लिखी हैं । ये पंक्तियाँ उस समय लिखीं गई हैं जब तक मैं मसूरी नहीं गया था ।)
शाम ढलते ही कौन छिड़क जाता है,
रंगीन सितारे पहाड़ी बदन पर तुम्हारी,
पूछता है व्याकुल हो देहरादून,
निहार कर तेरी सुन्दरता ओ मसूरी।
हर रोज देखता हूँ नए अजनबी चेहरे,
शाम ढले लौटते हैं तुझसे जब मिलके,
करते हैं हरदम सब तेरी ही बातें,
कुछ सुन्दरता की औ कुछ अन्तरंग यादें,
फासले कहाँ है हमारे बीच मीलों के ,
बरसों निभाता रहा हूँ तुझसे यारी,
मिलने की हसरत दबाये हूँ कबसे,
फ़िर भी न मिटा सका यह दूरी ।
पूछता है व्याकुल हो देहरादून,
निहार कर तेरी सुन्दरता ओ मसूरी।
सुनता हूँ अक्सर तेरी ही बातें,
रंगीन मौसम तुझसे मिलने हैं आते,
अमलतास और गुलमोहर के झुमके,
वर्षा बसंत मिलजुलकर हैं पहनाते,
चश्में औ झरनों की पूछ है बढ़ जाती,
जब तुम बदरिया की चुनरी लहराती,
ये मेरा वहम है या फिर कुछ और,
जब भी देखता हूँ तुम लगती हो प्यारी,
पूछता है व्याकुल हो देहरादून,
निहार कर तेरी सुन्दरता ओ मसूरी।
जब मसूरी घूमने गया तो एक ही सवाल मैंने किया ........
सफ़ेद सफ़हे सी चादर ओढे,
चिरहरित पत्तों का घूंघट डाले,
निहारती जाती हर सैलानी को,
आने वाले हर मानी को,
हर कोई दीवाना यहाँ पर,
क्या तुम ही पहाड़ों की रानी हो ?
-नवनीत नीरव-
शाम ढलते ही कौन छिड़क जाता है,
रंगीन सितारे पहाड़ी बदन पर तुम्हारी,
पूछता है व्याकुल हो देहरादून,
निहार कर तेरी सुन्दरता ओ मसूरी।
हर रोज देखता हूँ नए अजनबी चेहरे,
शाम ढले लौटते हैं तुझसे जब मिलके,
करते हैं हरदम सब तेरी ही बातें,
कुछ सुन्दरता की औ कुछ अन्तरंग यादें,
फासले कहाँ है हमारे बीच मीलों के ,
बरसों निभाता रहा हूँ तुझसे यारी,
मिलने की हसरत दबाये हूँ कबसे,
फ़िर भी न मिटा सका यह दूरी ।
पूछता है व्याकुल हो देहरादून,
निहार कर तेरी सुन्दरता ओ मसूरी।
सुनता हूँ अक्सर तेरी ही बातें,
रंगीन मौसम तुझसे मिलने हैं आते,
अमलतास और गुलमोहर के झुमके,
वर्षा बसंत मिलजुलकर हैं पहनाते,
चश्में औ झरनों की पूछ है बढ़ जाती,
जब तुम बदरिया की चुनरी लहराती,
ये मेरा वहम है या फिर कुछ और,
जब भी देखता हूँ तुम लगती हो प्यारी,
पूछता है व्याकुल हो देहरादून,
निहार कर तेरी सुन्दरता ओ मसूरी।
जब मसूरी घूमने गया तो एक ही सवाल मैंने किया ........
सफ़ेद सफ़हे सी चादर ओढे,
चिरहरित पत्तों का घूंघट डाले,
निहारती जाती हर सैलानी को,
आने वाले हर मानी को,
हर कोई दीवाना यहाँ पर,
क्या तुम ही पहाड़ों की रानी हो ?
-नवनीत नीरव-
बुधवार, 19 अगस्त 2009
कवायद
अब तो हर नज्म तेरी खातिर लिखता हूँ,
अशआरों के चंद टुकड़े भी जोड़ता हूँ,
अक्सर जबां तो चुप ही रहती है,
जब प्यार कलम औ पन्ने का देखता हूँ ।
जब भी देखता हूँ तुम्हारी खामोश नजरें,
मेरी पलकों को झुकना पड़ता है ,
होठ सकुचाते हैं मुस्कुराने में ,
मस्तक ख़ुद -ब-ख़ुद ही झुकता है,
ये कवायद है प्यार की छुपाने की,
या तुम्हारे लिए प्यार जतलाने की
इसी उधेड़बुन में ख़ुद की झेंप,
यूँ ही छुपाने की कोशिश करता हूँ ।
कैसे कह दूँ प्यार करता हूँ मैं तुमसे,
इसी में अपनी कई राते खर्चता हूँ ,
अब तो आँखें भी जागने लगीं हैं ,
जब हर पहर तुम्हें सोचता हूँ,
तुम ही समझ जाओ मेरा इशारा ,
टूटते तारों से यही दुआ करता हूँ ,
सफ़ेद मुरझाये पुर्जे पड़े होते हैं दराज में,
जब कागज पर तुम्हें उकेरना चाहता हूँ ।
-नवनीत नीरव -
अशआरों के चंद टुकड़े भी जोड़ता हूँ,
अक्सर जबां तो चुप ही रहती है,
जब प्यार कलम औ पन्ने का देखता हूँ ।
जब भी देखता हूँ तुम्हारी खामोश नजरें,
मेरी पलकों को झुकना पड़ता है ,
होठ सकुचाते हैं मुस्कुराने में ,
मस्तक ख़ुद -ब-ख़ुद ही झुकता है,
ये कवायद है प्यार की छुपाने की,
या तुम्हारे लिए प्यार जतलाने की
इसी उधेड़बुन में ख़ुद की झेंप,
यूँ ही छुपाने की कोशिश करता हूँ ।
कैसे कह दूँ प्यार करता हूँ मैं तुमसे,
इसी में अपनी कई राते खर्चता हूँ ,
अब तो आँखें भी जागने लगीं हैं ,
जब हर पहर तुम्हें सोचता हूँ,
तुम ही समझ जाओ मेरा इशारा ,
टूटते तारों से यही दुआ करता हूँ ,
सफ़ेद मुरझाये पुर्जे पड़े होते हैं दराज में,
जब कागज पर तुम्हें उकेरना चाहता हूँ ।
-नवनीत नीरव -
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