शनिवार, 25 अगस्त 2012

सावन का आखिरी खत....बाबा के नाम

बाबा! आपको गए चार सावन बीते,
यह सावन भी जाने वाला  है,
हँसी खुशी ही बीते सब  दिन,
पर मौसम तुनकमिजाजी निकला,
सुल्तानगंज  से देवघर तक,
जलते रहे कांवरियों के पाँव,
पानी न बरसा,
गिरहत के आँख बादल देखते आघाये,
एक टुकड़ा बादल-का न गुजरा ,
धान  की फसल बर्बाद हो गई,
इसी का तो आसरा रहता है न उन्हें,
कौन जाने रबी का मिजाज कैसा हो ?
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नातिन का तीज आया है,
ससुर-देवर आए हैं,
कल ही मालूम हुआ मुझे भी,
पहिलौठे तीज भादो में नहीं आती,
रात में आम और पुए संग,
भई खूब मेहमानी,
मीठी  गालियों के गीत भी गाए ,
गाँव  की जमा चंद औरतों ने,
काफ़ी खुश थे सब,
घर भी मुस्कुराया था ,
अब तक जो  खोया-सा लगता था.
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आज सुबह जल्दी ही जग गया,
रात को अच्छी नींद  नहीं आयी,
मच्छरों  से लड़ता-भिड़ता जो रहा था,
हवा भी दम साधे हुए थी,
पूरी रात एक पत्ता भी न डोला,
सारी रात छत पर टहलते बीती ,
हवा  भटक गई है,
या डर से किसी कोने में दुबक गई होगी,
गाँव  का ट्रांसफर्मर जल गया है,
शायद  हफ्ते भर लगेंगे,
उफ़! इतनी गर्मी तो कभी नहीं थी,
उमस वाली, वह भी सावन मास में.
सारा गाँव बेहाल  है आजकल
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कल चाचा बताते थे,
नीलगायें भी धान चरने लगी हैं आजकल,
साल  में दो बच्चे देती हैं,
किसान का जीना मुहाल,
यहाँ मकई-तरकारी भी तो नहीं कर पाते,
जो खरीफ का नुकसान पूरा कर पायें,
बगीचे- वन सब काट दिये जब,
तो आप ही समझाओ ,
नीलगाय कहाँ जाएँ ?
नीलगाय  क्या खाएँ ?
उनके चरागाह पर बन रही हैं ,
अंधाधुंध  बस्तियां,
तो भला क्यों न धान के पौधे चबाएँ,
चाचा भी जानते हैं यह बात,
पर दोष तो किसी को देना होगा न !
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घर दुआर सब सूना पड़ा है,
गाँव भी शांत-शांत लगता है,
आपके संगी-साथी जो जमा होते थे ,
बी०बी०सी० सुनने के बहाने दुआर पर,
एक-एक करके चले गए,
अब कोई नहीं आता शाम ढले,
बस वही लालटेन लटकती रहती है,
देर  रात तक ख़ामोशी में उंघती हुई,
गाँव  के पश्चिम में आम का बगीचा,
जहाँ गर्मी की छुट्टियाँ गुजरती रहीं थी,
आमों की रखवाली में,
जामुन-कोइन बीनने में,
अब सपाट मैदान है,
बेतहाशा अंधड़ एक-एक करके,
उन  पेड़ों को ले उड़ा,
शायद जीने की चाह भी नहीं थी उनमें,
कहते हुए दुःख-सा होता है,
बाबा! आप गए,
और अपने साथ ही सबकुछ ले गए,
कोई सोचता भी नहीं अब बेचैनी से,
इस  गाँव, इस घर के लिए,
कोई आता भी नहीं,
कभी -कभार केवल औपचारिकताएँ,
वह भी घर के बंटवारे की,
करना चाहते हैं सभी,
यहाँ  की ख़ामोशी का बंटवारा भी.

-नवनीत नीरव-

गुरुवार, 23 अगस्त 2012

गुजरते लम्हों की कुछ कसक तो बाकी है


गुजरते लम्हों की कुछ कसक तो बाकी है,
आगे बढ़ चला गाँव, पर फिर भी उदासी है.

लोग-बाग अब उलझते कम हरेक बात पर,
अंदर की ख़ामोशी ही अब उन्हें चिढ़ाती है.

सूनी राहों पर डरते थे, चलने में अकेले सब,
उदासियाँ पक्के राहों संग, अंदर ही मुस्काती हैं. 

अस्त-व्यस्त से दिखते कभी खेत-खलिहान-दालान,
आज खेतों में पुआल-मशान धू-धू जलायी हैं.

तब शिक्षा आती हर रोज मीलों दूर पैदल चल,
अब तो गुलाबी तम्बुओं में नई लंगर सजायी है.

कथा,गीत,लोरियाँ सुनातीं रात को अम्मा-दादी,
अब दूर की सखियाँ आँगन गुलजार कर जाती हैं. 

-नवनीत नीरव-

रविवार, 5 अगस्त 2012

एक मटमैली सी फुलशर्ट


एक मटमैली सी फुलशर्ट,
हाथ में पकड़े पुराना सा पौली बैग,
शहर के किसी नामचीन साड़ियों की दुकान का,
दिख जाता है मुझे वह ,
अमूमन रोज ही,
जिले के सरकारी दफ्तर में,
जहाँ आदेशपाल एक रूटीन की तरह,
वापस लौटाते हैं उसे ,
एक उदार और नामचीन बैंक का ऑफिस,
जहाँ उसके प्रवेश की इजाजत नहीं है,
किसी बुकशॉप में पन्ने पलटता हुआ,
नई मैगजीन्स के जिज्ञासा पूर्वक.


जिज्ञासा जिसे पूरा करने के लिए ही,
एक सपना देखा था उसने,
आश्वासन भी मिला था सबका उसे,
आर्थिक आभाव और थोथी दिलासा,
सिस्टम की कमियों ने,
खवाब अधूरे रख दिए उसके,
और वह निभाता रहा बस नियम-कानून,
पिछले कई बरसों से.

सभी तो जानते हैं क्या हुआ उसके साथ,
अफसोस के सिवा कुछ न कर पाते वे,
चेहरे पर जरूरत से ज्यादा मासूमियत,
जो आजकल सब में दिखाई नहीं देती,
एक ही बात को बार-बार पूछने की आदत,
जैसा छोटे बच्चे करते हैं.

कल मुझसे भी पूछा ही लिया उसने,
मतलब प्रोफेशनल और टेक्नीकल शिक्षा का,
और सन्न रह गया था मैं बातों ही बातों में,
देखकर उसकी डिग्रियां और शिक्षा ऋण की अर्जी,
उसी पौली बैग में,
जिसे लेकर न जाने कितने सालों से,
घूम रहा वो दफ्तर-दफ्तर.