रविवार, 5 अगस्त 2012

एक मटमैली सी फुलशर्ट


एक मटमैली सी फुलशर्ट,
हाथ में पकड़े पुराना सा पौली बैग,
शहर के किसी नामचीन साड़ियों की दुकान का,
दिख जाता है मुझे वह ,
अमूमन रोज ही,
जिले के सरकारी दफ्तर में,
जहाँ आदेशपाल एक रूटीन की तरह,
वापस लौटाते हैं उसे ,
एक उदार और नामचीन बैंक का ऑफिस,
जहाँ उसके प्रवेश की इजाजत नहीं है,
किसी बुकशॉप में पन्ने पलटता हुआ,
नई मैगजीन्स के जिज्ञासा पूर्वक.


जिज्ञासा जिसे पूरा करने के लिए ही,
एक सपना देखा था उसने,
आश्वासन भी मिला था सबका उसे,
आर्थिक आभाव और थोथी दिलासा,
सिस्टम की कमियों ने,
खवाब अधूरे रख दिए उसके,
और वह निभाता रहा बस नियम-कानून,
पिछले कई बरसों से.

सभी तो जानते हैं क्या हुआ उसके साथ,
अफसोस के सिवा कुछ न कर पाते वे,
चेहरे पर जरूरत से ज्यादा मासूमियत,
जो आजकल सब में दिखाई नहीं देती,
एक ही बात को बार-बार पूछने की आदत,
जैसा छोटे बच्चे करते हैं.

कल मुझसे भी पूछा ही लिया उसने,
मतलब प्रोफेशनल और टेक्नीकल शिक्षा का,
और सन्न रह गया था मैं बातों ही बातों में,
देखकर उसकी डिग्रियां और शिक्षा ऋण की अर्जी,
उसी पौली बैग में,
जिसे लेकर न जाने कितने सालों से,
घूम रहा वो दफ्तर-दफ्तर.