बरसाती
मौसम में,
सुदूर
अन्जाने जगह से,
नए
अरमानों के लिहाफ संग,
पैसा
आता है,
गंगा
कछार पर बसे,
महादलित
बस्तियों में,
स्वर्णरेखा
के गोद में पले,
आदिवासी
गाँवों में.
सूखा
माहौल हरा होने लगता है,
दुःख
पाँव दबाने लगता है,
खुशी
सिरहाने बैठ जाती है,
इच्छाएँ
जो अधूरी दबी होती हैं,
गत
कुछेक महीनों से,
खुद
को पूरी करने में मनोयोग से,
जुट
जाती हैं.
हडिया
और महुए की खुशबू से,
गांव
का वातावरण पनियाने लगता है,
मांदर-
ढोल की थाप गूंजती है,
फिर
एक खुशी पसर जाती है.
कुछ
उत्सवों के बीतते ही,
आए
हुए पैसे को जाना होता है,
मानों
उसे पंख लगे हों ,
क्या
युवा? क्या बच्चे? क्या स्त्रियां?
युवावस्था,
बचपन और इज्जत,
सभी
जाने लगते हैं,
उन्हें
अब जाना ही है,
आबाद
होने लगते हैं,
ईंट
भट्टे, कारखाने और सीमेंट फैक्ट्रियाँ,
अनजान
शहर बसते हैं प्रवासियों के,
उस
नए शहर के समीप, .
नई
जमात जन्म लेती है,
बंधुआ
मजदूरों की,
शुरू
होता है,
एक
मूक शोषण का दौर,
और
गुजरता जाता है,
फिर
सब कुछ चला जाता है.
हर
बार ही यह चक्र,
खुद
को दुहराता है.
शोषण,
इनकी
नियति बन जाती है .