गुरुवार, 18 जून 2009

आसमानी छतरी

याद है तुम्हें ,
पिछली साल की बारिश का वो दिन,
इस पार्क के कोने में ,
सीमेंट वाली वो बेंच,
जहाँ आखिरी बार हम बैठे थे,
तुम अचानक ही सिमट आई थीं,
मेरे समीप,
एक अनजाने भय से।
जबां खामोश थीं,
पर जज्बातों के बादल उमड़ आये थे,
मौसम रुआंसा हो रहा था,

दोनों के जिस्म बारिश में,
ऐसे सराबोर हो रहे थे,
मानों कोई पाल वाली नाव,
बीच समंदर में भींग रही हो।
ठण्ड से कांपते थरथराते,
तुम्हारे गुलाबी होठ,
भींग कर सफ़ेद हुए जाते थे ,

बारिश की परवाह कहाँ थी हमें,
हम तो सिर्फ रोये जाते थे,
और तुम्हारी वो आसमानी छतरी,
खुली औंधी,
न जाने कितनी देर तक,
भींगती रही थी ,
जाते वक़्त जिसे तुम,
वहीँ भूल आई थीं ।
तुम तो चलीं गयीं,
पर मैं आज भी
उसी बेंच पर आ बैठता हूँ,
हर इक बरसाती दिन में,
इस आसार में शायद,
तुम आओगी,
अपनी छतरी लेने।
फुर्सत मिले कभी
तो आकर देखना जरा ,
पार्क के उस कोने में ,
एक बरसाती फूल खिला है ,
बिलकुल तुम्हारी उस ,
खुली औंधी आसमानी छतरी जैसा ।

-नवनीत नीरव-