इस वर्ष में जो कुछ भी किया,
गर ना भी करता,
तो क्या बुरा होता?
जैसे नए साल की एक डायरी,
कि जिसके दो-चार पन्ने रंगकर,
रख दिया आलमारी के कोने में,
गर दर्ज़ कर जाता कुछेक पल
तो क्या बुरा होता?
कुछ जो तय किया था,
एक ‘साध्य’ की जुगत,
फिर खोज के सारे किरदार,
पलायन ना कर जाता,
तो क्या बुरा होता?
उलीचता सुवर्णरेखा के अनंत रेत,
बारहों महीने बन साधन,
पूछते हुए हर बार खुद से,
कि जो ये हुआ न होता,
तो क्या बुरा होता ?
तो क्या बुरा होता ?
-नवनीत नीरव-