बुधवार, 23 सितंबर 2009

गाँव की याद


तन झुलसाती गर्मी बीती,
और ये पावस बीत गया,
यहाँ अजब सी हवा चली,
एक क्षण मैं कुछ सोच न पाया ,
कल तक जिन गलियों में खेला,
उनको कैसे मैं भूल गया,
साथ छूटने का गम है मुझको,
पर उसने भी न मुझे बताया,
भूल चला था मैं तुझको भी,
मेरे गाँव, आज मुझे तू याद आया।

तुझ संग कभी रहा न अकेला,
चाहे दिवाली हो दशहरे का मेला
धूप सुबह की, शाम पंक्षियों की कतार,
मन होता था हर्षित पा खुशियाँ हजार,
पर आज त्योहारों की शाम में,
तुझसे दूर बैठा हूँ एकांत में,
न कोई चहल-पहल न कोई मेला,
निहारता रहा हूँ शून्य को अकेला,
शायद कोई मुझसे मिलने आए,
बचपन की यादें ताजी कर जाए,
इसी सोच में मैंने तुझे भुलाया,
पर कोई मुझसे मिलने न आया,
भूल चला था मैं तुझको भी,
मेरे गाँव, आज मुझे तू याद आया।

-नवनीत नीरव -

सोमवार, 7 सितंबर 2009

जिंदगी और रंग

दिल दिमाग के दरम्यान,
सिमट आती है जिंदगी,
जब अपनी सोच के जालों में,
उलझ सी जाती है जिंदगी।

मन की सतहों पर,
गुजरे पलों के स्केच से बनते हैं,
धीरे -धीरे उनमें फिर,
यादों के रंग भरते हैं,
अलग-अलग अनोखे रंग,
कुछ चटकीले, कुछ फीके रंग,
कुछ नए रिश्तों से हल्के रंग,
जिन्हें
बीतते लम्हें पक्के कर जाते है,
कुछ पुराने रिश्तों से गाढे रंग,
जो यादों की बारिश में धुल जाते हैं,
कुछ हँसते मुस्कुराते रंग,
कुछ रोते रुलाते रंग,
इसी रुदन हँसी के बीच,
सरकती जाती है जिंदगी।

-नवनीत नीरव -

शनिवार, 5 सितंबर 2009

तस्वीरें

(आज टीचर्स डे पर ये कविता मैंने पढ़ी)
इक सोच मेरे मन में,
यूँ ही जाती है ,
दिल में दबी यादों पर,
दस्तक दे जाती है,
इक ट्रैफिक-सा चलता है
घटनाएं एक- एक करके आती हैं,
भीड़ में अकेला होता हूँ मैं,
वे शोर करती गुजर जाती हैं

मैं सोचता हूँ अक्सर,
कि शायद आप भी सोचते हों,
जब बीत जायेंगे सारे चेहरे,
सिर्फ़ यादें ही तो रह जायेंगी,
दीवारों पर टंगी तस्वीरों जैसी,
हंसती मुस्कुराती सी,
या फिर उस कैलेंडर की तरह,
जिसे हर साल बदल देते हैं
या फिर एक अल्बम के,
कुछ पुराने पन्नों में ,
जिनमें आप गुजरे क्षणों को,
महसूस करने की,
असफल कोशिश करते हैं,
हर उस घटना को,
जिससे आप जुड़े थे,
पिछले टीचर्स डे की शाम,
या उस दिवाली की रात को,
जब मिलकर हमने,
इसी इमारत में,
खुशियों के दीये जलाये थे,
इक कोशिश की थी,
मिलकर अंधेरे को भगाने की
आज इमारत तो वही है,
पर कुछ लोग नहीं रहे (सीनियर्स)।
कुछ नाम कुछ किस्से,
अभी स्मृतियों में शेष हैं,
कि जिन्हें अगले वर्षों में ,
आप और हम भी भूल जायेंगे,
फिर यही हमारे साथ भी,
दुहराया जाएगा

दर्द तो होता है,
कि जब आँखें बंद करता हूँ,
पिछले सितम्बर की,
वो बारिश याद आती है,
जब ढेकनाल के हरे खेतों के बीच,
आप और हम भींग रहे थे
(ढेकनाल = उडीसा का एक जिला जहाँ पिछले साल हम ट्रेनिंग के लिए गए थे ।)

कभी सोचता हूँ,
अपने हॉस्टल की सारी
खिड़कियाँ खोल कर,
खूब सारी धूप इकट्ठी कर लूँ,
हर बीतीं यादों की,
एक एल्बम बना लूँ,
मगर असफल रहता हूँ,
क्या करुँ ?
मेरी अपनी सीमाएं हैं
कितना अजीब है ,
होकर भी नहीं होने की कल्पना करना

पर कभी कभी मन,
बेचैन हो उठता है,
लगता है दिल में,
सांसें उलझ रही हैं,
आंखों पर अँधेरा सा छाता है,
लगता है कोई पुकार रहा हो,
क्या होगा?
जब साथ होगा आपका,
(मेरी प्रेरणा तो आप ही हैं )
अपने दोस्तों का,
और कुछ यादों का,
जो यहीं रह जायेंगी

खैर जाने दीजिये,
अभी जाने के दिन दूर हैं,
अभी कुछ बीजों का,
अंकुरण(फ्रेशर्स) हुआ है,
चलो क्यों हरी घास पर,
हँसी के कुछ पुराने सिक्के ढूंढे,
अपनी फटी जेबें सिल लें,
"फटी हो जेब तो नए सिक्के भी खो जाते हैं "
शायद इसलिए,
इक सोच मेरे मन में,
यूँ ही जाती है,
दिल में दबी यादों पर,
दस्तक दे जाती है

-नवनीत नीरव-

बुधवार, 2 सितंबर 2009

युवा मंथन

(इस साल फिर से सूखा पड़ा हैशहरी क्षेत्र और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच जो आर्थिक खाई है, अब वो और गहरी हो जायेगीशहर फिर से कितने ही बेकार लोगों को गाँव छोड़ने पर मजबूर कर देगाकौन इनकी मदद करेगा ? और क्यों करेगा ?........ये बड़ा अहम् सवाल हैइस कविता के माध्यम से मैंने ख़ुद के और अपने जैसे युवा दोस्तों के आत्म मंथन की कोशिश की है। )

हवा को मालूम है उसे कहाँ जाना है,
संग
कितने सूखे पत्ते उड़ाना है,
जिंदगी
में कुछ कदम सादगी से रख,
कितने
पल रुकेगा इसका क्या ठिकाना है

समन्दर से लौटती उन कश्तियों को,
नीडों
में लौटते उन पंक्षियों को ,
ख़बर है समन्दर और आसमां की,
गहराई में पलता भयानक वीराना है

आपदाओं की मार से सहमे घरों में,
दुबकी हुई निरीह मानवता को ,
अपने
कम्बल की छाया दे दो तो,
ढलती शामों का वही आशियाना है

सड़कों
पर चल लेकिन संभल के,
तेरे अपनों में कुछ वहां हाथ पसारते,
मुट्ठी
भर चावल एक अदद रोटी ही,
समाज
का करता बंटवारा है

-नवनीत नीरव -