(मैंने अपने सीनियर्स के फेयरवेल पर कुछ पन्तियाँ लिखीं थीं जो आज मैं आपके लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ।)
चल, चल के देख लें उनको,
अभी जो अपने थे।
सुबह गुलाबी धूप से,
रातों में,
आंखों के सपने थे।
माना सफर नहीं था,
मीलों का ,
माना कोई शिकारा न था,
झीलों का।
चंद लम्हों का यह सफर,
बना गए यादगार,
कुछ आगे बढ़ने की सीख,
कुछ आपके विचार ।
तुम्हीं से रोशन थी सारी फिजां,
खुशी से चहकती थी हर दिशा,
अब तो यही लगता है ,
खुशियाँ घर छोड़ चलीं,
अब तो यही लगता है ,
गलियां भी मुँह मोड़ चलीं।
रह गए यहाँ पर,
कुछ बिखरे सामान,
तुम, तुम्हारी यादें और ,
सूना ये जहाँ ।।
- नवनीत नीरव -