बुधवार, 13 जुलाई 2011

सूनी गलियाँ और मैं

ये सच है कि कोई नहीं तकता,
इन गलियों में आजकल मेरा रस्ता,
ये गलियाँ फिर से सूनी हैं,
मैं फिर से अकेला,बेचैन-सा उसी तरह ,
जैसे कोई बादल भरी रातों में उमस संग,
ये कारगुजारियां मेरी ही हैं,
जो आज एक स्याह सन्नाटा पसरा है .
तुमको हल्के में लिया,
यही है मेरी खता,
समझता रहा कम अक्ल ,
यही है मेरी गिला,
कोशिश थी एक रिश्ते को,
कोई मुकाम देने की,
अनजाने हमसफ़र को,
अपनी पहचान देने की,
मैं ईमानदार था इसे लेकर,
पर कौन मानेगा इसे आजकल,
तुमने भी न माना,
विगत वर्षों में न पहचाना,
सबको छोड़ मैं भी तो,
हो लिया था तुम्हारे संग,
रास्ता सीधा नहीं था ,
पर आदतन मैं था तंग,
तुमको हल्के में लिया,
रिश्ते को यूँ ही चलने दिया,
क्या पता था कि ये गाड़ी,
सिर्फ प्रेम पर नहीं चलती,
विश्वास और ख्याल भी चाहिए इसे,
हालात अब ये है कि,
न तुम हो, न ही है अब हमारा रिश्ता,
जैसे राह ही भटक गई मेरी,
भटके हुए मुसफिर के मानिंद,
खोजता फिरता हूँ गर-बदर,
लेकर तुम्हारा नाम -पता,
इधर -उधर ,हर तरफ, हर पहर,
जबकि यह जनता हूँ ,
अब तुम न रखोगी मुझसे कोई रिश्ता,
ये सीधी गलियां अब सूनी ही रहेंगी,
और अब यहाँ कोई नहीं तकेगा मेरा रस्ता.