गंगा मैया चली हैं भैया,
गाँव
-शहर के दौरे पर,
तोड़-ताड़
कर बांध किनारे,
लोगों को परखने को,
आर-पगार,
बांध-क्यारियां,
सब
राह छोड़ खड़ी हैं.
पुराने नाले,
आहर, पाइन-पोखर,
पहले
यही अगवानी करते थे न !
ये गंगा को दो-चार दिन ठहराते थे,
ये गंगा को दो-चार दिन ठहराते थे,
फिर आवाभगत
होती थी,
अपने
बिरादरी वाले जो ठहरे,
इन्हीं
के घर रहते-ठहरते,
गाँव-जवार
का हाल चाल,
सब
वहीं मिल जाता था,
महीने-दो
महीने बाद
गंगा
लौटती थीं अपने देस,
अब
तो कोई भी नहीं,
इनकी
हाल-चाल लेने वाला,
इनकी
सेवा-टहल करने वाला,
सो
अनायास ही आती टहलने,
बाग़-बागीचों
में,
मस्जिद-
शिवालयों में,
स्कूल-अस्पतालों
में,
मकान-दुकानों
में,
अब
जब भी ये आती हैं,
घरों
पर लग जाते हैं ताले,
लोग
गाँव से बाहर चले जाते हैं,
या
अपने छतों पर चढ़ जाते हैं,
बड़े
बदतमीज हैं सब,
भूले
पड़े हैं आतिथ्य सत्कार,
और
कहने लगे हैं इसे “बाढ़”.
(२)
सूखा
ज्यादा भयावह है,
कहते
हैं राजनेता,
बाढ़-राहत
का मतलब,
टपका
दो खाने के पैकेट, पानी का पाउच,
हैलिकॉप्टर
से गाँवों पर,
लोगों
की छतों पर,
अरे!
अब इनको कौन समझाए,
चुनावी
क्षेत्र का नाम और “बाढ़”
असल
में दोनों में बड़ा फर्क होता है,
माना
कि दक्खिन सूख के टटूआ रहा है,
पर
दियर-हेठार तो डूबे जा रहे हैं,
लोगों
की नियमित टकटकी
पानी
कब उतरता है?
घुटनों
से कमर तक, कमर से छाती तक,
फिर
मकान की छत पर,
बिन
बरसात के बाढ़,
लोग
धूप तापने थोड़े न चढ़े हैं छत पर!
सुना
है सोन ने पानी छोड़ा है,
तब
तो जिला भी छोड़ना पड़ेगा,
बुरे
फंसे दो नदियों के बीच में.
धन-जन
सब कुछ,
माल-मवेशी,
घर आँगन उजड़ गए,
मकानों
में ताले पड़ गए,
दूर
तक असीम जलराशि,
बीच-बीच
में कुछ पुराने पेड़,
अब
चिउड़ा-गुड़ गिराने वाले,
उड़नखटोले
भी नजर नहीं आते,
चिपके
पड़े है सांप-बिच्छू,
पेड़ों
की डूबती-उतराती डालियों से,
गनीमत
है कि काटते नहीं,
दम
जो सरका हुआ है सबका !
लटके
हुए हैं कठुआते हुए लाचार सभी.
(३)
एक
दशक से ऐसा मंजर नहीं दिखा था,
शहर
हो या गाँव,
बस्तियां
खाली पड़ी हैं,
वैसे
गाँव तो कबके खाली पड़े हैं,
बाढ़
तो निमित्तमात्र है,
फिर
भी कुछ लोग बचे पड़े हैं,
कुछ
मोह में कुछ लाचारीवश,
बचा
लेने की खातिर,
जो
मिला है पुरखों के आशीर्वाद से,
जो
अरजा है वर्षो के लगन से,
कुछ
जमा किया है चोरिका,
किसी
को ठग कर,
किसी
को बहला-फुसला कर,
देखना
है छप्पर पर बैठकर,
कब
तक अगोरिया होती है,
गंगा
जी का संताप है,
ग्राम
देवता दुखी हैं,
मईया
की कौनो पुजाई जरूर बाकि होगी,
जो
अमंगल हुआ जाता है,
इनके
कोप से कोई नहीं बचता,
बहुत
कुछ चला गया है,
बचा है वह भी जायेगा.
(4)
ऐसा
सुना है
रात
को असंख्य तारे चमकते हैं,
जमे
हुए छलछलाते पानी पर,
डूबे
हुए गाँव के मध्य,
शहर
की छाती पर,
जरूर
पुरखे आते हैं आधी रात,
झींगुर
की झनझनाहट
मेढक
और टिटहिरी के कर्कश स्वरों से,
बेचैन
हो उठता है माहौल,
ये
भी सुना है कि
शहर
की वीरानी में,
डूबते
हुए मोहल्ले में,
कुछ साए आते हैं नौकाएं लेकर,
और बचे
हुए घर को,
बड़े
तफ़्तीश से ले जाते हैं लूट कर.
- नवनीत नीरव-
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