घर के पश्चिम,
सिरहाने पिया,
तूने जो लगवाई
बंसवरिया,
ये चरर-मरर
बाजे,
आठों पहर,
दुपहरिया पिया,
ये चरर-मरर
बाजे.
झर-झर बाजे
इसके,
हरे-हरे पात,
इतराती-इठलाती
रहे,
सँवर-सँवर दिन-रात,
बन गई बैरन,
बिरहिनिया पिया,
ये चरर-मरर
बाजे.
काम-क़ाज न फ़िक्र है कोई ,
बेदागी- सी भरमाये,
आँचल, चुनरी लहरा-लहरा,
हवाओं संग
पेंग लगाये,
अबके सावन भेजो
मोहे नैहर पिया,
ये चरर-मरर
बाजे.
कल ही बिहाने बढ़ई
बुलाउंगी,
बंसवरिया कटवाउंगी,
तब पाऊँगी चैन,
पूस, जेठ, भादो
अन्हरिया,
क्या कहूँगी जो
पूछे कोई,
क्यों तू
कटवाये बँसवरिया.
जो चरर-मरर
बाजे.
-नवनीत नीरव-
1 टिप्पणी:
उफ़ यह बांसुरी :)) उम्दा पोस्ट
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