मंगलवार, 11 सितंबर 2012

पता नहीं कैसे...... ?


दिन भर रही साथ, फिर अपने घर गई,
जिंदगी खुदगर्ज, एक दिन छोटी हो गयी.

सोता रहा अभी तक, घर में आराम से,
भ्रष्टाचार की चींटी, बिस्तर में घुस गई.

सिर्फ मतदान ही है अपने, जनतंत्र का अधिकार,
लाचारी आम आदमी की, अब जोरू बन गयी.

बच्चा रो-रोकर मांग रहा, खिलौने बार –बार,
अचानक से बगुलों की, बारात गुजर गयी.

खरीद कर नए मुखौटे, बन रहे प्रधानमंत्री,
चुनने का अधिकार, मोबाइल मकड़ी ले उड़ी.

दूरदर्शन,लोकसभा,राज्यसभा, बापू के तीन बन्दर,
देखने, सुनने, बोलने की जिनको इजाजत नहीं.

कल कुछ लिखा तंग आकर, निकालने को भड़ास,
पता नहीं लोकतंत्र को कैसे, ये गाली लग गई .

-    - नवनीत नीरव -

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